भक्त संग नाच्यौ बहुत गोपाल 2

‘भक्त संग नाच्यौ बहुत गोपाल’


राधा-माधव के युगल स्वरूप के माधुर्यभावोपासक भक्त शिरोमणि मधुकरशाह नियमित रूप से प्रातः काल युगल किशोरजी के मन्दिर में दर्शन करने जाते थे और रात्रि में अपने गुरु हरि रामजी व्यास एवं अन्य भक्तों के साथ पाँव में घुँघरू बाँध कर गायन करते हुए नृत्य लीन हो जाते थे। नृत्य करते-करते बेसुध हो जाना तो उनके लिये एक सामान्य बात हो गयी थी।

एक दिन किन्हीं विषम परिस्थितियों के कारण ओरछा में होते हुए भी वे नित्य की भाँति रात्रि में निश्चित समय पर युगल किशोर सरकार के मन्दिर में उपस्थित न हो सके। यथा समय सरकार की शयन-आरती के पश्चात मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। अधिकांश भक्त जन अपने-अपने घरों को वापस लौट गये। हरी रामजी व्यास कुछ अन्य भक्तों के साथ मन्दिर के बाहर बैठ कर ओरछेश के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

लगभग अद्ध रात्रि के समय मधुकरशाह अपने नियम की पूर्ति हेतु मन्दिर पहुँचे। अपने गुरुजी को प्रतीक्षारत पाकर उन्होंने विलम्ब से उपस्थित होने का स्पष्टीकरण देते हुए क्षमा-याचना की और निवेदन किया कि क्यों न मन्दिर के पिछवाड़े चलकर थोड़े ही समय कीर्तन कर लिया जाय, जिससे सरकार के शयन में बाधा भी उत्पन्न न हो और नित्य-नियम की आंशिक पूर्ति भी हो जाय।

उस निस्तब्ध निशा में ऐसा कीर्तन जमा कि सभी के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी। ‘राधे-राधे’ का उद्धोष आनन्द में कई गुना वृद्धि कर रहा था। मधुकरशाह अपनी विलक्षण प्रीति धारा में प्रवाहित हो सुध-बुध ही खो बैठे थे। प्रेमी अपने प्रेमास्पद के प्रेम में तल्लीन हो और प्रेमास्पद भक्त वत्सल युगल किशोर सरकार शयन करते रहें, भला यह कैसे सम्भव था?

सहसा मन्दिर पूर्वाभिमुखी के स्थान पर घूमकर पश्चिमाभिमुखी हो गया। मन्दिर के कपाट स्वतः ही अनावृत हो गये और युगल किशोर साक्षात प्रकट होकर भक्तों के साथ नृत्य करने लगे। इस अलौकिक दृश्य को देख कर देवताओं ने आकाश से पुष्प-वृष्टि की, जो पृथ्वी का स्पर्श पाते ही स्वर्ण के हो गये। मधुकरशाह अपने-आप को सरकार के अत्यन्त निकट पा कर प्रेमाश्रु बहाते हुए उनके श्री चरणों में लोट गये। अपने अनन्य भक्त के साथ नृत्य करते हुए उसे दर्शन देकर युगल किशोर अन्तर्धान हो गये।

इस अलौकिक घटना का साक्षी युगल किशोर सरकार का वह देवालय महाराज छत्रसाल द्वारा युगल किशोर के श्री विग्रह को ओरछा से पन्ना ले जाये जाने के कारण रिक्त हो गया। अपने अतीत की वैभवपूर्ण मधु स्मृतियों को सँजोये यह ऐतिहासिक देवालय उपेक्षा का शिकार होकर भग्नावस्था में अब भी ओरछा में विद्यमान है।

युगल किशोर सराकर की प्रेमोपासना में निरन्तर लीन रहते हुए एक दिन मधुकरशाह स्वयं प्रभु में लीन हो गये। भगवत-रसिक रचित ‘भक्त-नामावली’, राजा नागरीदास रचित ‘पद-प्रसंग माला’ एवं नाभादास जी रचित ‘श्रीभक्तमाल’ - जैसे ग्रन्थों में मधुकरशाह को अपनी प्रेमा-भक्ति के कारण ही विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ।



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