भक्त लाखा का आदर्श परिवार

भक्त लाखा जी और उनका आदर्श परिवार भगवान का परम था। भगवान में इनके परिवार का अटूट विश्‍वास था। लाखा जी खेती का काम करते थे। इनकी स्‍त्री खेमाबाई बड़ी साध्‍वी और पतिव्रता थी। घर का सारा काम तो करती ही, खेती के काम में भी पति की पूरी सहायता करती थी; और पति की सेवा किये बिना तो उसका नित्‍य का व्रत ही पूरा नहीं होता था।

लाखा जी की सन्‍तानें

लाखा जी के दो सन्‍तान थीं- पुत्र का नाम था देवा और कन्‍या का गंगाबाई। पुत्र के विवाह की तो जल्‍दी नहीं थी, परंतु धर्मभीरु ब्राह्मण को कन्‍या के विवाह की बड़ी चिन्‍ता थी। चेष्‍टा करते-करते समीप के ही एक गाँव में योग्‍य वर मिल गया। वर के पिता सन्‍तोषी ब्राह्मण थे। सम्‍बन्‍ध हो गया और समय पर लाखा जी ने बड़े चाव से अपनी कन्‍या गंगाबाई का विवाह करके उसे ससुराल भेज दिया। इस समय गंगाबाई की उम्र बारह वर्ष की थी।[1]

जामाता शोक

सदा दिन एक-से नहीं रहते। न मालूम प्रारब्‍ध के किस संयोग से कैसे दिन बदले जाते हैं। लाखा जी के जामाता को साँप काट गया और विधि के विधानवश पचीस वर्ष की युवावस्‍था में वह अपनी बाईस वर्ष की पत्‍नी और माता-पिता को छोड़कर चल बसा। जब लाखा जी को यह समाचार मिला, तब उन्‍होंने बड़े धीरज के साथ अपनी स्‍त्री खेमाबाई और पुत्र तथा पुत्रवधू को अपने पास बुलाकर कहा- "देखो, संसार की दृष्टि से हम लोगों के लिये यह बड़े ही दु:ख की बात हुई है। दु:ख इस बात का इतना नहीं है कि जवाँई मर गये! जीवन-मरण सब प्रारब्‍धाधीन हैं, इन्‍हें कोई टाल नहीं सकता। दु:ख तो इस बात का है कि गंगाबाई का जीवन दु:ख रूप हो गया। यदि हम लोग अपने व्‍यवहार-बर्ताव से गंगाबाई का दु:ख मिटा सकें तो हमारा सारा दु:ख दूर हो जाय। उसके दु:ख दूर होने का उपाय यह है कि उसको हम यहाँ ले आयें और हम लोग स्‍वयं विषय भोगों का त्‍याग करके उसे श्री भगवान की सेवा में लगाने का प्रयत्‍न करें। भोगों की प्राप्ति से दु:खों का नाश नहीं होता, न भोगों के नाश में ही वस्‍तुत: दु:ख है। दु:ख के कारण तो हमारे मन के मनोरथ हैं। एक भी भोग न रहे, अति आवश्‍यक चीजों का भी अभाव हो; परंतु मन यदि अभाव का अनुभव न करके सदा सन्‍तुष्‍ट रहे, उसमें मनोरथ न उठें तो कोई भी दु:ख नहीं रहेगा। इसी प्रकार भोगों की प्रचुर प्राप्ति होने पर भी जब तक किसी वस्‍तु के अभाव का अनुभव होता है और उसको प्राप्‍त करने की कामना रहती है, तब तक दु:ख नहीं मिट सकते। यदि हम लोग चेष्‍टा करके गंगाबाई के मन से उसके पति के अभाव को भुला दे सकें और उसकी सदा भावरूप परमपति भगवान के चरणों में आसक्ति उत्‍पन्‍न कर दे सकें तो वह सुखी हो सकती है। यद्यपि यहाँ के सारे सम्‍बन्‍ध इस शरीर को लेकर ही हैं, तथापि जब तक सम्‍बन्‍ध हैं तब तक हम लोगों को परस्‍पर ऐसा बर्ताव करना चाहिये, जिससे हमारे मन भोगों से हटकर भगवान में लगें और हमें परम कल्‍याणरूप श्री भगवान की प्राप्ति हो। हित करने वाले सच्‍चे माता-पिता, पुत्र-भाई, स्‍त्री-स्‍वामी वही हैं, जो अपनी सन्‍तान को, माता-पिता को, भाई-बहिनों को, स्‍वामी को और पत्‍नी को अनन्‍त क्‍लेशरूप जगज्‍जाल से छुड़ाकर अचिन्‍त्‍य आनन्‍दस्‍वरूप भगवान के पथ पर चढ़ा देते हैं। हम लोगों को भी यही चाहिये कि हम शोक छोड़कर नित्‍य शोकरूप संसार सागर से गंगाबाई को पार लगाने का प्रयत्‍न करें।'

लाखा जी की स्त्री, उनके पुत्र देवा तथा पुत्रवधू सभी का लाखा जी के वचनों पर पूरा विश्‍वास था। वे सब प्रकार से उनके अनुगत थे। अत: लाखा जी के इन वचनों का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्‍होंने कहा- "आप गंगाबाई को यहाँ ले आइये, हम लोग आपके आज्ञानुसार भोगों का त्‍याग करके उसे भगवान के मार्ग पर ही लगायेंगे। इससे हमारा-उसका-सभी का परम कल्‍याण होगा।"

गंगाबाई का घर

लाखा जी समधी के घर गये और वहाँ का दृश्‍य देखकर चकित रह गये। उन्‍होंने देखा- गंगाबाई अपने सास-ससुर को संसार की क्षणभंगुरता और मिथ्‍या सम्‍बन्‍ध का रहस्‍य समझाकर उन्‍हें सान्‍त्‍वना दे रही है और वे उसकी बात मानकर रोना छोड़कर भगवान के नाम का कीर्तन कर रहे हैं। अपनी पुत्री की यह स्थिति देखकर लाखा जी को दु:ख में सुख हो गया! उन्‍हें मानो जहर से अमृत मिल गया। वे समधी से मिले, उन्‍हें देखकर शोक-सागर उमड़ा; परंतु गंगाबाई के उपदेशों की स्‍मृति आते ही तुरंत शान्‍त हो गया। समधी ने लाखा जी से कहा- "लाखा जी ! आप धन्‍य हैं जो आपके घर ऐसी साध्‍वी कन्‍या उत्‍पन्‍न हुई। आप जानते हैं- युवा पुत्र की मृत्‍यु का शोक कितना भयानक होता है, स्‍त्री के लिये तो पति का वियोग सर्वथा असह्य है; परंतु धन्‍य है आपकी पुत्री को- जिसने विवेक के द्वारा स्‍वयं तो पति वियोग का दु:ख सह ही लिया, हम लोगों को भी ऐसा उपदेश दिया कि हमारा दारुण पुत्र-शोक दूर हो गया!

हम समझ गये- जगत के ये सारे सम्‍बन्‍ध आरोपित हैं। जैसे किसी खेल में अलग-अलग स्वाँग धरकर लोग आते हैं और अपना-अपना खेल पूरा करके चले जाते हैं, वैसे ही इस संसाररूपी खेल में हम लोग आते हैं, सम्‍बन्‍ध जोड़ते हैं और खेल पूरा होते ही चले जाते हैं। यहाँ कोई किसी का पुत्र या पिता नहीं है। एकमात्र परमात्‍मा ही सबके परम पिता हैं। हम सब को उन्‍हीं की आराधना करनी चाहिये। आप आ गये हैं- अपनी इस साध्‍वी कन्‍या को अपने घर ले जाइये। हम दोनों स्‍त्री–पुरुष पुष्‍करराज जाकर भगवद्भजन में ही शेष जीवन बिताना चाहते हैं। आपकी पुत्री हमारे साथ जाने का आग्रह करती है, परंतु हमारे मन में भगवान ऐसी ही प्रेरणा करते हैं कि वह आपके ही पास रहे। हाँ, इतना जरूर चाहते हैं यह अपनी सद्भावना से हमारा सदा कल्‍याण करती रहे। आप जाइये, हम लोग आपके बड़े ही कृतज्ञ हैं; क्‍योंकि आपकी पुत्री ने ही हमारी आँखें खोली हैं और हमें वैराग्‍य-विवेक का परम धन देकर भगवान की अव्‍यभिचारिणी भक्ति प्रदान की है।'

लाखा जी समधी के वचन सुनकर अचरज में डूब गये। उन्‍हें अपना विवेक-वैराग्‍य इनके सामने फीका जान पड़ने लगा। वे जामाता की मृत्‍यु के शोक को भूल गये और अपनी पुत्री तथा समधी-समधिन को जैसी स्थिति प्राप्‍त कराना चाहते थे, उससे भी कहीं अधिक उनकी स्थित देखकर उन्‍हें बड़ा आनन्‍द हुआ। उन्‍होंने समधी-समधिन को हर्ष के साथ पुष्‍करराज भेज दिया। उनके निर्वाह के लिये घर में जो कुछ था, सब बेचकर नकद रुपये उन्‍हें दे दिये और गंगाबाई को साथ लेकर घर की ओर प्रस्‍थान किया।

भगवान की लीला

गंगाबाई को प्रसन्‍नचित्त देखकर लाख जी ने पूछा- "बेटी! तेरी ऐसी अनोखी हालत देखकर मैं अचरज में डूब रहा हूँ। मैं तरह-तरह के विचार करता आया था कि तुझे कैसे समझाकर धीरज बँधाउँगा, परंतु तेरी स्थिति देखकर तो मैं चकित हो गया। बता, बेटी ! तुझे ऐसा ज्ञान कहाँ से और कैसे प्राप्‍त हुआ?" गंगाबाई ने कहा- "पिता जी ! यह सारा आपकी भक्ति तथा भजन का प्रताप है! आप जो रोज पूरी गीता और विष्‍णुसहस्रनाम के पचास पाठ करते हैं, उन्‍हीं के प्रताप से भगवान ने मुझ को विश्‍वास प्रदान किया और अपनी कृपा के दर्शन कराये। आपकी कृपा से भैया और मैं- हम दोनों ने विष्‍णुसहस्रनाम कण्‍ठस्‍थ कर लिया था।" यहाँ आकर मैं जहाँ तक मुझसे बनता, निरन्‍तर मन-ही-मन विष्‍णुसहस्रनाम के पाठ किया करती। आपके जामाता की मृत्‍यु के तीन दिन पहले भगवान ने मुझको स्‍वप्‍न में दर्शन देकर कहा- "बेटी ! तेरे पति की आयु पूरी हो चुकी है, वह मेरा भक्त है। तेरे साथ कोई पूर्व सम्‍बन्‍ध का संयोग शेष था, इसी-से उसने जन्‍म लिया था। अब इसे तीन दिन बाद साँप डँसेगा-उस समय तू इसे मेरा सहस्रनाम और गीता सुनाती रहना। ऐसा करने से इसका कल्‍याण हो जायगा और यह मेरे धाम को प्राप्‍त होगा। मैं तुझे वरदान देता हूँ- तुझे शोक नहीं होगा। तुझे सच्‍चा वैराग्‍य और ज्ञान प्राप्‍त होगा। तेरे उपदेश से तेरे सास-ससुर भी कल्‍याण पथ के पथिक होकर अन्‍त में मुझको प्राप्‍त करेंगे। और तू जीवनभर मेरी भक्ति करती हुई अपने पिता-माता तथा भाई-भौजाई के सहित मेरे परम धाम को प्राप्‍त होगी।"

‘’पिता जी ! इतना कहकर भगवान अन्‍तर्धान हो गये। मैं जाग पड़ी। मानो उसी समय से मुझे ज्ञान का परम प्रकाश मिल गया। मैं सारे शोक-मोह से छूटकर पति के कल्‍याण में लग गयी। मैंने व्रत धारण किया और रातों जागकर पति देवता को गीता और सहस्रनाम सुनाती रही। तीसरे दिन पतिदेव स्‍नान करके तुलसी जी को जल दे रहे थे। मैं उनके पास खड़ी सहस्रनाम का पाठ कर रही थी, वे भी श्री भगवान का नाम ले रहे थे। इसी समय अचानक एक कालसर्प ने आकर उनके पैर को डस लिया और देखते-ही-देखते ब्रह्माण्‍ड फटकर उनके प्राणपखेरू उड़ गये। अन्तिम श्‍वास में मैंने सुना- उनके मुख से ‘हे नारायण’ नाम निकला और उनके कान में विष्‍णुसहस्रनाम के ‘माधवो भक्तवत्‍सल:’ नामों ने प्रवेश किया। उनकी आँखें खुल गयीं- मैंने देखा श्री भगवान चतुर्भुज रूप में उनकी आँखों के सामने विराजित हैं। इतने में ही जोर की ध्‍वनि हुई और उनका कपाल फट गया। पिताजी ! पतिदेव की इस मृत्‍यु ने मेरे मन मे भगवद्विश्‍वास का समुद्र लहरा दिया, अब मैं तो उसी में डूब रही हूँ। आप मेरी सहायता कीजिये, जिससे मैं सदा इसी में डूबी रहूँ। आप लोग मेरा साथ तो देंगे ही।"

लाखा जी पुण्‍यमयी गंगा की पुण्‍यपूर्ण वाणी सुनकर गद्गद हो गये, उनकी आँखों से आनन्‍द के आँसू बह चले।

घर संतों का पावन आश्रम

पिता-पुत्री घर आये, माता और भाई-भौजाई से मिलकर गंगाबाई ने उलटी उन्‍हें सान्‍त्‍वना दी। लाखा जी और खेमाबाई तो उसी दिन से विरक्त-से होकर समस्‍त दिन-रात भगवद्भजन में बिताने लगे। घर की सारी सँभाल गंगाबाई करने लगी। भाई-भौजाई प्रत्‍येक काम उसकी आज्ञा लेकर करते। वह घर की मालकिन थी और थी भाई-भौजाई को परमार्थ पथ में राह दिखाकर-विघ्‍नों से बचाकर ले जाने वाली चतुर पथ प्रदर्शिका। भाई देवा जी और भाभी लिछमी-दोनों गंगाबाई की आज्ञा के अनुसार पिता-माता की सेवा करते, गंगाबाई की सेवा करते ओर सब समय भगवान का स्‍मरण करते हुए भगवत्‍सेवा के भाव से ही घर का सारा काम करते। उन्‍होंने भोगों का त्‍याग कर दिया था और वे पूर्णरूप से सादा-सीधा संयमपूर्ण जीवन बिताते थे। उनका घर संतों का पावन आश्रम बन गया था। दैवी सम्‍पदा के गुण सब में स्‍वभावसिद्ध हो गये थे। घर में दोनों समय भगवान बालकृष्ण की पूजा होती थी और उन्‍हें भोग लगाकर सब लोग प्रसाद पाते थे। इस प्रकार सब का जीवन पवित्र हो गया।

बालकृष्ण के दर्शन

माता-पिता की मृत्‍यु के बाद बहिन, भाई, भौजाई-तीनों भगवान के भजन में लग गये। भाई-भौजाई के विशेष अनुरोध करने पर एक दिन गंगाबाई ने भगवान से प्रकट होकर दर्शन देने की प्रार्थना की। भगवान ने प्रार्थना सुनी और प्रत्‍यक्ष प्रकट होकर तीनों भक्तों को अपने दिव्‍य रूप के दर्शन कराये। वे तीनों भगवान के प्रत्‍यक्ष दर्शन पाकर कृतार्थ हो गये और भगवत्‍सेवा में ही अपना शेष जीवन लगाकर अन्‍त में भगवान के परमधाम को चले गये।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 692

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