हँसि बोले तब सारँगपानी। प्रानप्रिया तुम क्यौ बिलखानी ।।
मैं हाँसी की बात चलाई। तुम्हरे मन यह साँची आई ।।
आँसू पोछि निकट बैठारी। हँसी जान बोली तब प्यारी ।।
कहँ तुम त्रिभुवन पति गोपाल। कहाँ बापुरो नर सिसुपाल ।।
कहाँ चँदेरी कहँ द्वारावती। जाकै सरबरि नहिं अमरावति ।।
तुम अनुभव वह जनमैं मरै। मरख वह तम सरवरि करै ।।
तुम सम और नहीं जदुराइ। यहै जानि मैं सरनहि आइ ।।
यह सुनि हरि रुकमिनि सौ कह्यौ। जौ तुम मोकौ चित हरि चह्यौ ।।
त्यौं ही मम चित चाहत तुमकौ। नहिं अंतर कछु हम सौ हमकौ ।।
जदुपति कौ यह सहज स्वभाव। जो कोउ भजै भजै तिहि भाव ।।
जो यह लीला हित करि गावै। ‘सूर’ सो प्रेम भक्ति कौ पावै ।। 4195 ।।