यह अक्रूर दसा जो सुमिरै, सिखै सुनै अरु गावै।
अर्थ धर्म कामना मुक्ति फल, चारि पदारथ पावै।।
हरि जू कह्यौ मनोरथ तुम्हरौ, करिहै श्री भगवान्।
जो जांचत सोई सो पावत, यह निश्चै जिय जान।।
तुम जानत हौ पांडव के सुत, हैं अति हितू हमारे।
कुरुपति अंध मोह बस तिनकौ, देत सदा दुख भारे।।
तात जाइ उनकौ तुम भेटहु, हमरी कुसल सुनावहु।
बहुरौ समाचार सब उनके, लै हम पै चलि आवहु।।
यह कहि स्याम राम ऊधौ मिलि, अपने भवन सिधारे।
सुफलकसुत आयसु माथै धरि, पांडव गृह पग धारे।।
पहिलै कौरव पति सौ भेंटे, पुनि पाडंव गृह आए।
पकरि चरन कुंती के पुनि पुनि सब गहि गरै लगाए।।