भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम 7

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम


एक दिन श्रीजयदेव जी ‘गीतगोविन्द’ की एक कविता लिख रहे थे, परंतु वह पूरी ही नहीं हो पाती थी। पद्मावती ने कहा- ‘देव! स्नान का समय हो गया है। अब लिखना बंद करके आप स्नान कर आयें तो ठीक हो।’ जयदेव जी ने कहा- ‘पद्मा! जाता हूँ। क्या करूँ, मैंने एक गीत लिखा है; परंतु उसका शेष चरण ठीक नहीं बैठता। तुम भी सुनो-

स्थलकमलगन्जनं मम हृदयरन्जनं
जनितरतिरंगपरभागम्।
भण मसृणवाणि करवाणि चरणद्वयं
सरसलसदलक्तकरागम्।।
स्मरगरलखण्डनं मम शिरसि मण्डनम्

इसके बाद क्या लिखूँ, कुछ निश्चय नहीं कर पाता! पद्मावती ने कहा- ‘इसमें घबराने की कौन-सी बात है! गंगास्नान से लौटकर शेष चरण लिख लीजियेगा।’ ‘अच्छा यही सही। ग्रन्थ को और कलम-दवात को उठाकर रख दो, मैं स्नान करके आता हूँ। जयदेव जी इतना कहकर स्नान करने चले गये। कुछ ही मिनटों बाद जयदेव का वेष धारण कर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पधारे और बोले- ‘पद्मा! जरा ‘गीतगोविन्द’ देना।’ पद्मावती ने विस्मित होकर पूछा- ‘आप स्नान करने गये थे न? बीच से ही कैसे लौट आये?’

महामायावी श्रीकृष्ण ने कहा- ‘रास्तें में ही अन्तिम चरण याद आ गया, इसी लौट आया।’ पद्मावती ने ग्रन्थ और कलम-दवात ला दिये। जयदेव-वेषधारी भगवान ने-

‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्।’

लिखकर कविता की पूर्ति कर दी। तदनन्तर पद्मावती से जल मँगाकर स्नान किया और पूजादि से निवृत्त होकर भगवान को निवेदन किया हुआ पद्मावती के हाथ से बना भोजन पाकर पलँग पर लेट गये।

पद्मावती पत्तल में बचा हुआ प्रसाद पाने लगी। इतने में ही स्नान करके जयदेव जी लौट आये। पति को इस प्रकार आते देखकर पद्मावती सहम गयी और जयदेव भी पत्नी को भोजन करते देखकर विस्मित हो गये। जयदेव जी ने कहा-‘यह क्या? पद्मा, आज तुम श्रीमाधव को भोग लगाकर मुझको भोजन कराये बिना ही कैसे जीम रही हो? तुम्हारा ऐसा आचरण तो मैंने कभी नहीं देखा।’


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