भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम 2

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम

भगवान की अपने ऊपर इतनी कृपा देखकर जयदेव का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने घर-द्वार छोड़कर पुरुषोत्तमक्षेत्र-पुरी जाने का विचार किया और अपने गाँव के पराशर नामक ब्राह्मण को साथ लेकर वे पुरी की ओर चल पड़े। भगवान का भजन-कीर्तन करते, मग्न हुए जयदेव जी चलने लगे। एक दिन मार्ग में जयदेव जी को बहुत दूर तक कहीं जल नहीं मिला। बहुत जोर की गरमी पड़ रही थी, वे प्यास के मारे व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े। तब भक्तवान्छाकल्पतरु हरि ने स्वयं गोपाल-बालक के वेष में पधारकर जयदेव को कपड़े से हवा की और जल तथा मधुर दूध पिलाया। तदनन्तर मार्ग बतलाकर उन्हें शीघ्र ही पुरी पहुँचा दिया। अवश्य ही भगवान को छद्मवेष में उस समय जयदेव जी और उनके साथी पराशर ने पहचाना नहीं।

जयदेव जी प्रेम में डूबे हुए सदा श्रीकृष्ण का नाम-गान करते रहते थे। एक दिन भावावेश में अकस्मात उन्होंने देखा मानो चारों ओर सुनील पर्वतश्रेणी है, नीचे कल-कल निनादिनी कालिन्दी बह रही है। यमुना तीर पर कदम्ब के नीचे खड़े हुए भगवान श्रीकृष्ण मुरली हाथ में लिये मुस्कुरा रहे हैं। यह दृश्य देखते ही जयदेव जी के मुख से अकस्मात यह गीत निकल पड़ा-

मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामासतमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चालितयोः प्रत्यध्वकुन्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः।।


पराशर इस मधुर गान को सुनकर मुग्ध हो गया। बस, यहीं से ललितमधुर ‘गीतगोविन्द’ आरम्भ हुआ! कहा जाता है, यहीं जयदेव जी को भगवान के दशावतारों के प्रत्यक्ष दर्शन हुए और उन्होंने ‘जय जगदीश हरे’ की टेर लगाकर दसों अवतारों की क्रमशः स्तुति गायी। कुछ समय बाद जब उन्हें बाह्य ज्ञान हुआ, तब पराशर को साथ लेकर वे चले भगवान श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन करने! भगवान के दर्शन प्राप्त कर जयदेव जी बहुत प्रसन्न हुए। उनका हृदय आनन्द से भर गया! वे पुरुषोत्तमक्षेत्र-पुरी में एक विरक्त संन्यासी की भाँति रहने लगे। उनका कोई नियत स्थान नहीं था। प्रायः वृक्ष के नीचे ही वे रहा करते और भिक्षा द्वारा क्षुधा-निवृत्ति करते। दिन-रात प्रभु का ध्यान, चिन्तन और गुणगान करना ही उनके जीवन का एकमात्र कार्य था।

विवाह की इच्छा न होने पर भी सुदेव नाम के एक ब्राह्मण ने भगवान की आज्ञा से अपनी पुत्री पद्मावती जयदेव जी को अर्पित कर दी। भगवान का आदेश मानकर जयदेव जी को पद्मावती के साथ विवाह करना पड़ा। कुछ दिनों बाद गृहस्थ बने हुए जयदेव पतिव्रता पद्मावती को साथ लेकर अपने गाँव केन्दुबिल्व लौट आये और भगवान श्रीराधामाधव की युगल श्रीमूर्ति प्रतिष्ठित करके दोनों उनकी सेवा में निवृत्त हो गये।


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