भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि कहो कि तत्क्षण ही क्यों न माना जाय? तो ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि जाति नित्य है, वह नाम स्मरण मात्र से परिवर्तित नहीं हो सकती। यदि नाम स्मरण मात्र से जाति परिवर्तन हो सकता तो गर्दभी को भी नाम सुनाकर कामधेनु बनाया जा सकता था। परन्तु ऐसा नहीं होता। जाति जन्म से होती है, अतः उसका परिवर्तन जन्मान्तर में ही हो सकता है। जिस प्रकार गौ एवं गर्दभादि योनियाँ हैं उसी प्रकार ब्राह्मण और चाण्डालादि भी योनियाँ हैं। श्रुति कहती है- ‘ब्राह्मणयोर्नि वा चाण्डालयोनिं वा।’ तात्पर्य यह है कि चाहे जाति परिवर्तन हो या न हो परन्तु नाम स्मरण से चाण्डाल भी परम पवित्र तो अवश्य हो सकता है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि उसकी अस्पृश्यता निवृत्त हो जाती है। अपवित्रता दो प्रकार की है, जाति निमित्तक और कर्म निमित्तक। कर्म निमित्तक पातित्य पुण्य-कर्म से निवृत्त हो सकता है, किन्तु जाति निमित्तक पातित्य कर्म से निवृत्त नहीं हो सकता। चाण्डाल का पातित्य जाति निमित्तक है। अतः चाण्डाल शरीर रहते हुए उसकी अव्यवहार्यता का प्रयोजक पातित्य निवृत्त नहीं हो सकता। किन्तु भगतत्स्मरण से वह कर्मजनित पातित्य से मुक्त होकर शुद्धान्तःकरण हो जाता है और उसके द्वारा वह भगवत्प्राप्ति भी कर सकता है; उसका कुल पवित्र हो जाता है और उसे परलोक में वह गति प्राप्त होती है जो भक्तिहीन ब्राह्मण के लिये भी दुर्लभ है। इसी से भगवान ने भी कहा है-
अतः सिद्ध हुआ कि वह भजनानन्द चन्द्र, कुत्सितों को भी सुख प्रदान करता है इसलिये ककुभ है। ‘प्रियः’ भी उस भजनानन्द चन्द्र का ही विशेषण है। वह भजनानन्द चन्द्र मानो विषयी, मुमुक्षु और मुक्त सभी प्राणियों के परम प्रेम का आस्पद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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