भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
सवनकर्म का अधिकार केवल द्विजों को ही है। अतः इस श्लोक में जो ‘सद्यः’ शब्द है उसका ‘तत्काल’ अर्थ करके कोई-कोई ऐसा कहने लगते हैं कि भगवत्स्मरण के प्रभाव से चाण्डाल भी उसी जन्म में सवनाधिकारी यानी द्विज हो सकता है। परन्तु ऐसी बात नहीं है। ‘सद्यः’ का अर्थ शीघ्र है और शीघ्रता सापेक्ष हुआ करती है। शास्त्र सिद्धान्त तो ऐसा है कि पशु एवं तिर्यक योनियों को भोग चुकने पर जब जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है तो सबसे पहले उसे पुल्कसयोनि मिलती है। उससे उत्तरोत्तर कई जन्मों में स्वधर्म पालन करते-करते वह वैश्य होता है; और तभी उसे द्वियोचित कृत्यों का अधिकार प्राप्त होता है। अतः यहाँ ‘सद्यः’ शब्द से यही तात्पर्य है कि यदि चाण्डाल स्वधर्मनिष्ठ रहकर भगवच्चिन्तन करेगा तो उसे एक-दो जन्म के पश्चात् ही द्विजत्व की प्राप्ति हो जायगी; अनेकों जन्मों में नहीं भटकना पड़ेगा। यह क्रम स्वधर्मनिष्ठों के ही लिये है। स्वधर्म का आचरण न करने पर तो शूद्र को भी पुनः चाण्डाल-योनि प्राप्त होती है। जैसे कहा है-
अर्थात् कपिला गौ का दूध पीने से, ब्राह्मणी के साथ मैथुन करने से और वेदाक्षर का विचार करने से शूद्र भी चाण्डालत्व को प्राप्त हो जाता है। और यदि शूद्र स्वधर्म में तत्पर रहे तो उसी जन्म में देहपात के अनन्तर स्वर्ग प्राप्त कर सकता है।
अतः स्वधर्म का अतिक्रमण कभी न करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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