भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसे प्रकृत प्रसंग में दूसरी तरह भी लगाते हैं- 'यथा उडृराजः चर्षणीनां शुचो मृजन शन्तमैः करैः करधृतेन अरुणेन च प्राच्या ककुभः मुखं विलिम्पन उदगात्तथा दीर्घदर्शनः प्रियः श्रीकृष्णः प्रियायाः श्रीवृषभानुनन्दिन्याः मुखं शन्तमैः करैः करधृतेन अरुणेन कुङ्कुमेन च विलिम्पन चर्षणीनां गोपीजनानां शुच: शोकाश्रूणि मृजन उदगात्।’ अर्थात जिस प्रकार चन्द्रमा मनुष्यों का शोकापनोदन करता है हुआ तथा अपनी शीतल किरणों से उनमें धारण की हुई उदयकालीन लालिमा से पूर्वदिशा का मुख लेपन करता हुआ उसी प्रकार बहुत काल पीछे दिखाई देने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा श्रीवृषभानुसुता के मुखारविन्द को अपने करकमलों में धारण किये हुए कुंकुम से लेपन कर गोपीजनों के शोकाश्रुओं का मार्जन करते हुए प्रकट हुए। यहाँ ‘चर गतिभक्षणयोः’ इस धातु पाठ के अनुसार ‘चर्षणीनाम्’ इस पद का अर्थ गति और भक्षण परायण है। ‘गति’ शब्द से कर्म और ‘भक्षण’ शब्द से कर्मफल समझना चाहिये। अतः इससे वे मनुष्य[1] विवक्षित हैं जो केवल कर्म और कर्मफल में ही आसक्त हैं। इन संसारी लोगों के सर्वविध ताप का निराकरण करता हुआ उडुराज-चन्द्रमा उदित हुआ, क्योंकि वह उदित होकर उद्दीपन-विभावरूप से परमानन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र के चित्त में रमण की इच्छा उत्पन्न करेगा, जो कि श्रीकृष्ण-प्रेमियों को बहुत काल से अभिलषित है। अतः भगवान की प्रेयसी व्रजांगनाओं के शोक का मार्जन होने से सारे संसार का शोक मार्जित हो जायगा, क्योंकि यह नियम है कि जिस क्रिया से भगवद्भक्तों का शोक निवृत्त होता है उससे सारे संसार का ही शोक निवृत्त हो जाता है और जिससे भगवद्भक्त सन्तप्त होते हैं उससे सभी को सन्ताप होता है। देखो, जिस समय ध्रुव जी ने भगवत्तादात्म्य को प्राप्त होकर श्वासनिरोध किया था उस समय सारे संसार का ही श्वास निरुद्ध हो गया था। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि भगवान सर्वात्मा है; अतः यदि भगवद्भक्त सन्पप्त होता है तो सारा संसार ही सन्तप्त हो उठता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘चर्षणी’ शब्द मनुष्य अर्थ में रूढ़ है। यह बात निम्नलिखित श्लोक से सिद्ध होती है- अर्यम्णो मातृका पत्नी तस्यां चर्षणयः सुताः। तास्वेव ब्रह्मणा जातिर्मानुषी परिकल्पिता।।
अर्थ-अर्यमा की पत्नी मातृका नामवाली थी। उसके ‘चर्षणी’ संज्ञक पुत्र हुए। उन चर्षणियों में ही ब्रह्मा जी ने मानुषी जाति की कल्पना की।
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