भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस लोक में वे बड़े ही भाग्यशाली हैं जिन्होंने इस गोकुल में किसी वनवीथिका के पास तृण-गुल्मादिरूप में जन्म लिया है, क्योंकि उन्हें उन कृष्णप्राणा गोपवधूटियों के पद-पद्मपराग से अभिषिक्त होने का सुवसर प्राप्त होता है।[1] इससे यहाँ यही कहना हैं कि भगवान अनेकों को स्वात्मसमर्पण करके भी पूर्णरूप से ही अवशिष्ट रहते हैं। अतः भगवान की यह योगमाया शक्ति ही है जिससे वे सदा सब कुछ करते हुए भी अक्षुण्ण ही रहते हैं। उन्होंने रमण की इच्छा कैसे की? इस पर कहते हैं- “ताः कात्यायन्यर्चनव्रतसन्तुष्टेन भगवता वरत्वेन प्रदत्ताः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः रात्रीः वीक्ष्य।” अर्थात कात्यायनी-पूजन एवं व्रतादि से सन्तुष्ट हुए श्रीभगवान ने जिन्हें वर रूप से दिया था उन शदोत्फुल्लमल्लिका रात्रियों को देखकर भगवान ने रमण की इच्छा की। उन रात्रियों को ग्रहण कर उनमें आधिदैविकी रात्रियों का निवेश कर भगवान ने रमण की इच्छा की। ऐसा करके उन्होंने उन रात्रियों को पूर्ण बना दिया, क्योंकि आधिदैविकी रात्रियाँ भगवद्रूपा हैं। इस प्रकार उन सबको पूर्णिमारूप बनाकर और ऋतु को भी शरद ऋतु में ही परिणत कर दिया। अर्थात समस्त रात्रियों में ऋतु-परिवर्तन का क्रम न रखकर केवल एक ही ऋतु रखा और उनमें मल्लिकादि समस्त पुष्प विकसित कर दिये। इस प्रकार उन रात्रियों को समसत उद्दीपन सामग्रियों से सम्पन्न कर मुरली-ध्वनि द्वारा गोपांगनाओं का आह्वान कर उनके साथ रमण करने की इच्छा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादपपद्ममभीक्ष्णशः। यासां हरिकथोद्गीत। पुनाति भुवनत्रयम्।।”
“तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां यद्गोकुलेऽपि कतमाङ्घ्रिरजोऽभिषेकम्।।”
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