भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसके सिवा किन्हीं आचार्यों का मत है कि भगवान ने यह रासलीला स्वजनों का ब्रह्मानन्द से उद्धार करके उनमें भजनानन्द स्थापित करने के लिये की थी। अतः उन्होंने सबसे पहले रमण के लिये उन व्रजांगनाओं की इच्छा की। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार किसी एक मधुरातिमधुर पदार्थ को अनेक रूप में विभक्त करके उसका समास्वादन किया जाता है, उसी प्रकार परमानन्द सिन्धु श्रीभगवान भी अनेक रूप में विभक्त होकर अपने स्वरूपभूत आनन्द का स्वयं ही आस्वादन करते हैं। इसी से भगवान अपनी स्वरूपभूता व्रजांगनाओं में रमणेच्छा उत्पन्न करके भी पहले स्वयं कुल काल तक ‘अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रः’ इत्यादि श्रुति के अनुसार सर्वसंकल्पशून्य और निःस्पृह ही रहे। किन्तु अब उन्होंने भी रमण की इच्छा की। परन्तु यह रमण कैसा है? यहाँ तक ही परमतत्त्व को अनेकों नायकों और नायिकाओं के रूप में प्रकट कर अपने ही स्वरूपभूत आनन्द का रसास्वादन करना है। वास्तव में ‘भ सेवायाम्’ या ‘रमु क्रीडायाम्’ के अनुसार एक प्रकार असाधारण भाव से तादात्म्यापत्ति अथवा जो स्वरूपभूत आनन्द है, उसको अपने अनन्य भक्तों में स्थापित करना ही यह भजनानन्द रूप रमण है। इससे आपातदृष्टि से यह जान पड़ता है कि यदि उस कूटस्थ परमानन्द तत्त्व का अन्यत्र संक्रमण किया गया तो अपने स्वरूप से च्युत होने के कारण उसे अच्युत नहीं कहा जा सकता। इस आशंका का निराकरण करने के लिये ही कहा है- ‘भगवानपि’। अर्थात जो अप्रच्युत स्वभाव भगवान अपने अचिन्त्यानन्त ऐश्वर्य के माहात्म्य से अपने स्वरूपभूत परमानन्द का अन्यत्र संचार करके भी सदा अच्युत ही रहते हैं उन्होंने रमण करने की इच्छा की। जिस प्रकार चिन्तामणि, कल्पतरु एवं कामधेनु आदि अपने समीपस्थ लोगों को उनके संकल्पित पदार्थ देकर भी स्वयं अक्षुण्ण ही रहते हैं उसी प्रकार भक्तों को प्रेम प्रदान करने पर भी भगवत्स्वरूप में कोई च्युति नहीं होती। किन्तु यहाँ पुनः सन्देह होता है कि इस प्रकार स्वरूपानन्द का अन्यत्र संक्रमण होने से भगवत्स्वरूप भले ही अविकारी रहे तथापि वह स्वरूपानन्द तो अपने स्थान का त्याग करने के कारण विकारी हो ही जायगा। वह कूटस्थ या अविकारी नहीं रह सकता। इसी से कहा है- “योगमायामुपाश्रितः”। भगवान की योगमाया एक ऐसी शक्ति है जो उस पदार्थ को अन्यत्र ले जाने पर भी विकृत नहीं होने देती। इसी से भगवान अपने कूटस्थ परमानन्द को अन्यत्र दूसरों में संक्रमित करके भी स्वयं अविकृत ही रहते हैं और उनके उस आनन्द में भी कोई विकार नहीं होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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