भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
उसके साथ ही यह भी समझना चाहिये कि- “यस्या योगे सम्प्रयोग एव श्रीकृष्णस्य मा शोभा सा श्रीवृषभानुसुता योगमा तस्यामुपाश्तिःʺ जिनके संयोग में ही श्रीकृष्णचन्द्र की शोभा है वे वृषभानुनन्दिनी ही योग मां हैं। अर्थात जैसे श्रीकृष्णचन्द्र से विप्रयुक्ता श्रीराधिका जी की शोभा नहीं है वैसे ही श्रीराधिकाजी के बिना श्यामसुन्दर की शोभा नहीं है। जिस प्रकार प्रभाशून्य सूर्य, चन्द्रिकाहीन चन्द्र का मधुरिमारहित अमृत फीके हैं उसी प्रकार अपनी आह्लादिनी-शक्तिरूपा श्रीकीर्तिसुता के बिना श्रीनन्दनन्दन की शोभा नहीं है। यदि ऐसी बात न होती तो जिनके कृपाकटाक्ष के लिये ब्रह्मा और रुद्रादि देवगण भी लालायित रहते हैं वे श्रीलक्ष्मी जी भी जिनके विक्षाल वक्षःस्थल में अविचल रूप से निवास करती हुई उनके तुलसी गन्धयुक्त पदपद्मपराग की कामना करती हैं[1], वे ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र लक्ष्मी की उपेक्षा करके वेणु-निनाद द्वारा समस्त गोपांगनाओं के सहित उन्हें बुलाने का प्रयास क्यों करते? इससे सिद्ध होता है कि उन श्रीराधिका जी का सौन्दर्य विलक्षण ही था। समस्त व्रजांगनाएँ भी श्रीराधिकारूपा होकर ही भगवान को प्राप्त करती हैं। इसी से लोक में भगवान को रुक्मिणीरमण या सत्यभामावल्लभ न कहकर श्रीराधारमण या गोपीवल्लभ ही कहते हैं। इससे निश्चय होता है कि भगवान की यथार्थ शोभा श्रीराधिका जी से ही है। अथवा- “योगाय व्रजांगनानां रासादिसुखप्रापणाय या माया वयुनात्मिका[2] संकल्पशक्तिस्तामुपाश्रितः”। अर्थात गोपांगनाओं को रसादि-सुख प्राप्त कराने के लिये जो माया-ज्ञानात्मक संकल्प उसे आश्रय कर भगवान ने रमण करने की इच्छा की। तात्पर्य यह है कि वहाँ किसी अन्य बाह्य-साधन की अपेक्षा से रहित भगवान की सत्यसंकल्पता ही समस्त लीलोपयुक्त सामग्री का सम्पादन करने वाली थी। अथवा- “योगाय व्रजांगनानां मनोरथपूर्तये या माया दम्भः[3] तामुपाश्रितः”। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चक्रर्म तुलस्या लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्।
यस्याः स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुर प्रयासस्तद्वद्वयं च तव पादरजः प्रपन्ना।। - ↑ मायां तु वयुनं ज्ञानम्।
- ↑ माया कृपायां दम्भे च।
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