भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गायत्री-तत्त्व
उत्पादक, पालक संहारक त्रिविध लोकात्मा भगवान तीनो व्याहृतियों के अर्थ हैं। जगदृत्पत्ति-स्थिति-संहार-कारण परब्रह्म ही ‘सवितृ’ शब्द का अर्थ है। तथापि गायत्री द्वारा विश्वोंत्पाद, स्वप्रकाश परमात्मा के उस रमणीय चिन्मय का ध्यान किया जाता है, जो समस्त बुद्धियों का प्रेरक एवं साक्षी है। यहाँ उत्पत्ति को उपलक्षण मानकर उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का कारण पर-ब्रह्म ही ‘सवितृ’ शब्द का अर्थ है। इस दृष्टि से उत्पादक, पालक, संहारक जो भी देवता प्रमाणसिद्ध हैं, वे सभी गायत्री के अर्थ हैं। उत्पादक पालक संहारक- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा उनकी स्वरूपभूत तीनों शक्तियों का ध्यान किया जाता है। त्रैलोक्य, त्रैविद्य तथा प्राण जिस गायत्री के स्वरूप हैं, वह त्रिपदा गायत्री परोरजा आदित्य में प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि आदित्य ही मूर्त-अमूर्त तो दोनों ही का रस है। इसके बिना सब शुष्क हो जाते हैं, अतः त्रिपदा गायत्री आदित्य में प्रतिष्ठित है। आदित्यः चक्षुः- स्वरूप सत्ता में प्रतिष्ठित है। वह सत्ता बल अर्थात प्राण में प्रतिष्ठित है, अतः सर्वाश्रयभूत प्राण ही परमोत्कृष्ट है। गायत्री अध्यात्म प्राण में प्रतिष्ठित है। जिस प्राण में सम्पूर्ण देव, वेद कर्मफल एक हो जाते हैं, वही प्राणस्वरूपा गायत्री सबकी आत्मा है। शब्दकारी वागादि प्राण ‘गय’ हैं, उनका त्राण करने वाली गायत्री है। आचार्य अष्टवर्ष के बालक को उपनीत करके जब गायत्री का प्रदान करता है। तब जगदात्मा प्राण ही उसके लिये समर्पित करता है। जिस माणवक को आचार्य गायत्री का उपदेश करता है, उसके प्राणों का त्राण करना है, नरकादि पतन से बचा लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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