भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वस्तुतः ईर्ष्या तो वहीं रहा करती है जहाँ स्वामी परिच्छिन्न और अल्प-सुख प्रदान करने वाला होता है। किन्तु यहाँ श्रीराधिकारमण तो अपरिच्छिन्न-अनन्त-सुखमय और सर्वशक्ति सम्पन्न हैं। इसलिये उन्हें किसी प्रकार की ईर्ष्या क्यों होने लगी? अतः अपना आश्रय लेने पर वे उन गोपांगनाओं के साथ रमण करने के लिये भगवान की मति को प्रेरित कर देती हैं। अथवा- “योगाय भगवता श्रीकृष्णेन सह सम्बन्धाय, मां-सर्वेषां मुक्तमुमुक्षुविषयिणां मतिम् आययति प्रापयति इति योगमाया तामुपाश्रितः।” जो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के साथ तादात्म्य प्राप्त कराने के लिये मुक्त, मुमुक्षु और विषयी लोगों की मति का सम्पादन करती हैं वे श्रीवृषभानुनन्दिनी योगमाया हैं, उनमें उपाश्रित श्रीभगवान ने रमण की इच्छा की। श्रीवृषभानुसुता की कृपा से ही मनुष्यों की भगवान के प्रति प्रवृत्ति होती है; अन्यथा उनका चित्त अनेक प्रकार के ऐहिक-आमुष्मिक भोगों में ही आसक्त रहता है। किन्तु यदि वे विचारपूर्वक देखें तो भगवत्प्राप्ति ही उनका परम स्वार्थ है-“स्वारथ साँच जीव कहँ एहू। मन-क्रम-वचन राम-पद-नेहू।।” शास्त्रों में जैसे स्वार्थ की निन्दा की गयी है वैसे ही उसकी महत्ता भी कम नहीं बतलायी गयी, जैसा कि कहा है- “स्वकार्य साधयेद्धीमान् कार्यध्वंसो हि मूर्खता।” अर्थात बुद्धिमान पुरुष को अपना काम बना लेना चाहिये, काम को बिगाड़ देना ही मूर्खता है। कृतार्थता की सभी ने प्रशंसा की है; किन्तु इसका तात्पर्य क्या है? कृतार्थता का अर्थ है काम पूरा कर लेना। यह काम दूसरों का नहीं है, क्योंकि दूसरों के कामों की तो कभी पूर्ति नहीं हो सकती। अतः सिद्धान्त यही है कि स्वकार्यसिद्धि ही कृतार्थता है। स्वप्न में स्वप्नद्रष्टा अत्यन्त प्रयत्न करके भी कितने स्वप्न-पुरुषों का कल्याण कर सकेगा? उन सबके कल्याण का एकमात्र साधन तो यही है कि वह स्वयं जग जाय। इसी प्रकार संसार का परम कल्याण भी अपने ही कल्याण में है। यदि लोकदृष्टि से देखें तो भी जब तक तुम स्वयं कृतकृत्य नहीं हो तब तक तुम्हारी बात कौन सुनेगा? इस दृष्टि से स्वार्थ साधन ही परम कर्तव्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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