भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जैसे कि कहा है-
ऊपर के श्लोक का तात्पर्य यह है- ‘आत्मनः स्वस्य त्वंपदार्थस्य भगवद्भावं तत्पदार्थत्वं सर्वभूतेषु पश्येत्’ अर्थात (जिस प्रकार उपाधि का बाध करने पर घटाकाश की महाकाशरूप से व्यापकता है उसी प्रकार) जो समस्त प्राणियों में तत्पदार्थरूप से त्वंपदार्थ की व्यापकता देखत है एवं भगवदभिन्न आत्मा में समस्त भूतों को कल्पित रूप से देखता है। अथवा ‘आत्मनोऽन्तर्यामिणो भगवद्भावमैश्वर्यवत्त्वं नियन्तृत्वं सर्वत्र भावयति तथा भगवति परमैश्वर्यवत्यात्मनि आत्मनियम्यत्वेनाधेयत्वेन च भूतानि पश्चेत्’ अर्थात जो सर्वत्र आत्मा यानी अन्तर्यामी का भगवद्भाव-ऐश्वर्यवत्व अर्थात नियन्तृत्व देखता है और भगवान-परम ऐश्वर्यवान परमात्मा में उसके नियम्य और आधेयरूप से समस्त भूतों को देखता है वही श्रेष्ठ भगवद्भक्त है। इनमें जो उत्तमा भक्ति है वह भी तीन प्रकार की है। जहाँ भगवदाकाराकारित अन्तःकरण से समस्त विद्यमान जगत का भगवद्रूप से ग्रहण किया जाय वह प्रथम कोटि की उत्तमा-भक्ति है। ऊपर जो उत्तमा-भक्ति का लक्षण बतलाया है वह प्रथम कोटि की ही है। दूसरी कोटि की उत्तमा-भक्ति वह है जहाँ भगवदाकाराकारित द्रुत अन्तःकरण से प्रपंचमिथ्यात्व-निश्यचपूर्वक सबकी भगवद्रूपता का निश्चय किया जायः जैसे कि कहा है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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