भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार उनका दोनों ओर खिंचाव है। तथापि वे हैं कैसी? ‘रात्रीः’ अर्थात अपने को और अपने सर्वस्व को मेरे ही पादपद्मों में समर्पण करने वाली हैं। इनके धन, रूप और जीवन सब मेरे लिये हैं। इनकी दृष्टि में मेरे बिना जीवन का कोई मूल्य नही है। उन्हें इस प्रकार उभयतःपाशारज्जु में बँधा हुआ देखकर भगवान ने अयोगाय-उनके लोककुल-लज्जादिरूप बन्धन के विच्छेद के लिये माया-कृपा का आश्रय लेकर उनके साथ रमण की इच्छा की। इसी से उन्होंने वेणुनाद के द्वारा उनके लोक एवं कुल आदि के बन्धनों को विच्छिन्न करके उन्हें प्रेमाकुल कर दिया। अथवा- “अयस्कान्तमणिं प्रति अयोवत् अच्छति स्वभक्तान प्रति या सा अयोगाः अयोगा चासौ माया-कृपा अयोगमाया” जो अपने भक्तों के प्रति इस प्रकार आकर्षित हो जैसे लोहा चुम्बक की ओर, उसका नाम अयोगा है, ऐसी जो अयोगा माया-कृपा है उसे ही अयोगमाया समझना चाहिये; क्योंकि भगवान की कृपा भक्तों के प्रति उसी प्रकार आकर्षित हो जाती है जैसे चुम्बक के प्रति लोहा। यद्यपि भगवान की कृपा सर्वदा सर्वत्र है तथापि उसका आकार्षण करने में भक्तजन ही समर्थ हैं। अतः भगवान भी उसी कृपा के अधीन होकर उनके साथ रमण करने को उद्यत हो गये, क्योंकि भगवान की जो ऐश्वर्यशक्ति और मायाशक्ति हैं, वे भी अपनी नियन्त्री इस कृपाशक्ति के ही अधीन हैं। अथवा परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र का जो दिव्य मंगलमय वपु है वह अयस्कान्तमणि के समान है, उसके प्रति जो अयः-लोहे के समान आकर्षित होती हैं वे व्रजवनिताएँ ही अयोगा हैं। तात्पर्य यह है कि गोपांगनाएँ भगवान के पास अपनी इच्छा से नहीं गयीं, बल्कि भगवत्सौन्दर्यरूप अयस्कान्त ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अतः उन पर कृपा करके भगवान ने वे रात्रियाँ बनायीं। अथवा- स्वेन सह युज्यन्ते ये ते योगाः गोपदाराः, तेषां या माया-कृपा तामुश्रितः योगमायामुपाश्रितः। अर्थात जो अपने से युक्त होने वाली हैं वे गोपवधूटी ही ‘योगा’ हैं, उनके प्रति जो माया है उसी का नाम योगमाया है। उसका आश्रय लेकर उन्होंने रमण करने की इच्छा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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