भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
शरद ऋतु विशेषतया जड़ता की सूचक होती है। अतः इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि इस लीला के प्रभाव जाड्यमय-मलविक्षेपादिसमाक्रान्त मन में भी मल्लिका के समान प्रेमत्व का विकास हो जाता है; तथा भगवत्स्वरूप और भगवत्लीलाओं का अनुशीलन ही प्रधानतया प्रेमतत्त्व के आविर्भाव में हेतु है। प्रेम के आविर्भाव में जड़ाजड़ का विचार भी नहीं है। इसी से यहाँ दिखलाया है कि वृन्दावन में जितने भी तृण-लता एवं वृक्षादि हैं वे अचेतन नहीं बल्कि चेतन ही हैं; यदि वे जड़ अर्थात स्वभावपरतन्त्र होते तो शरद ऋतु में असमय ही मल्लिकाओं का विकास कैसे होता? इन्हें अवसर का ज्ञान है और ये अपने स्वभाव का भी विचार रखते हैं, इसी से भगवत्लीला का सुअवसर देखकर असमय में भी वे पुष्पादि-सम्पन्न हो गये। इससे सिद्ध होता है कि व्रज तरुवर एवं लताएँ भी चेतन ही हैं। इसी से भगवान ने बलभद्र जी का गुणकीर्तन करते हुए उनसे निवेदन किया था-‘प्रायो अमी मुनिगणा भगवदीयमुख्याः’-ये तरुवर सम्भवतः आपके प्रधान भक्त मुनिजन ही हैं। ये अपने आत्मभूत आपको किसी भी दशा में छोड़ना नहीं चाहते। अतः जिस प्रकार आप मनुष्याकार होकर गूढ़रूप से लीला कर रहे हैं उसी प्रकार ये भी वृक्षादिरूप होकर आपकी सेवा में उपस्थित हो गये हैं। ये अपनी पुष्पादि-सम्पन्न शाखारूप शिखाओं से आपके पदतल संस्पृष्ट पृथ्वी तल का स्पर्श करना चाहते हैं। इसके सिवा एक अन्य प्रसंग में यह भी कहा है कि ये वृक्ष मानो वेदद्रुम हैं, इनकी जो शाखाएँ हैं वे मानों माध्यन्दिनी आदि वेद की शाखाएँ हैं, पल्लव मानो उपनिषदें हैं और उन पर जो पक्षी हैं वे मानो आत्माराम मुनिगण हैं- ‘आरुह्य ये द्रुमभुजान् रुचिरप्रवालान् शृण्वन्त्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः।’ ‘जो मनोहर-शोभारूप वृक्ष की भुजाओं पर आरूढ़ होकर अन्य किसी प्रकार का शब्द न करते हुए खुले नेत्रों से वंशी ध्वनि श्रवण करते रहते हैं।’ यहाँ ‘अमीलितदृशः’ यह पद विशेष रहस्यपूर्ण है। यद्यपि कानों से मुरली ध्वनि सुनते समय नेत्रों का व्यापार रुक जाता है, क्योंकि जिस समय मन एक इन्द्रिय के विषय का आस्वादन करने में तत्पर है उस समय वह दूसरे इन्द्रिय के विषय को किस प्रकार ग्रहण करेगा? किन्तु आपके रूपलावण्य का तो विलक्षण माधुर्य है; वह उनके नेत्रों को बन्द ही नहीं होने देता। अतः मालूम होता है, ये पक्षिगण अवश्य कोई भगवत्कथानुरागी मुनिजन ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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