भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
साथ ही वसन्त ने यह भी सोचा कि भगवान श्रीकृष्ण हमारे मित्र कामदेव को परास्त करने का आयोजन कर रहे है। वह उनका प्रभाव जानता ही था। उसे यह मालूम था ही कि इन्होंने इन्द्र और ब्रह्मा का भी मान मर्दन दिया है। यही दशा कुबेर और वरुण की भी हुई थी। अब ये सब पर विजय प्राप्त करके हमारे मित्र को भी जीतना चाहते हैं; परन्तु वे भी किसी से कम नहीं है। वे भी ब्रह्मादि-विजय संरूढदर्प हैं। अतः वसन्त ने सोचा कि यह बड़ा विकट युद्ध होगा। इसलिये हमें मित्रवर मनोज की सहायकता करनी चाहिये; क्योंकि- “धीरज धमर मित्र अरु नारी। आपतिकाल परखिये चारी।।” अच्छा तो हमें क्या करना चाहिये? वीरों के लिये सबसे बड़ी सहायता यही है कि उनके पास अस्त्र-शस्त्रों की कमी न रहे। हमारे मित्र पुष्पधन्वा हैं और उनके शस्त्र भी पुष्प ही हैं। अतः उनकी सहायता के लिये मुझे समस्त वृन्दारण्य को विविध प्रकार के सुन्दर और सुवासित सुमनों से सुसज्जित कर देना चाहिये। इसी से उसने यथायोग्य काल की अपेक्षा न करके सब प्रकार के पुष्पों को विकसित कर दिया है। कामोद्रेक के आलम्बन-विभाव नायक के लिये नायिका और नायिका के लिये नायक हैं तथा पुष्प, चन्द्रज्योत्स्ना, मलयानिल आदि उसके उद्दीपन-विभाव हैं। पुष्प तो साक्षात कन्दर्प के बाण ही हैं। उनमें कुन्दकुङ्मल तो शूल का काम करता है। जो उद्दीपन-विभाव नायक-नायिका के संयोग में रसवृद्धि करने वालो हैं वे ही उनका वियोग होने पर अत्यन्त दुःखद हो जाते हैं। उस अवस्था में कुन्दकुसुम शूल हो जाते हैं, केवल (केवड़ा) भाले का काम करता है और किंशुक (पलाश पुष्प) मानो अर्धचन्द्र बाण हो जाता है। किंशुक पुष्प रक्तवर्ण होता है सो मानो वह विरहियों का वक्षस्थल विदीर्ण करके उनके रक्त से रंचित हो रहा है। इसी प्रकार अन्य पुष्पों में भी विभिन्न शस्त्रास्त्र की कल्पना कर लेनी चाहिये। भगवान की रची हुई ये रात्रियाँ प्राकृत नहीं थीं। अप्राकृत भगवान के साथ अप्राकृत गोपांगनाओं की यह अप्राकृत लीला अप्राकृत रात्रियों में ही होनी चाहिये थी। अतः भगवान ने उन अप्राकृत रात्रियों का निर्माण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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