भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा ‘वृन्दावने गाः चारयतीति वृन्दावनगोचरः’- वृन्दावन में गौएँ चराने के कारण भगवान वृन्दावन-गोचर है। जो परब्रह्म निर्विशेष है वही यदि वृन्दावन में गौ चराने वाला हो जाय तो उसके प्रति प्रेमातिशय होना ही चाहिये; क्योंकि निर्विशेष ब्रह्म स्वारसिकी प्रीति का विषय नहीं हो सकता। उसका विषय तो यह वृन्दावनस्थ कृष्ण ही हो सकता है। स्वारसिकी प्रीति प्रायः सजातीयों में ही होती है। भगवान श्रीकृष्ण प्रथम तो मनुष्यरूप में अभिव्यक्त हुए; फिर गोप होने के कारण उनके सजातीय ही थे। इसलिये ऐश्वर्यादिशून्य होने के कारण उनके प्रति गोपों का निःसंकोच भाव रहता था। इसी से गोपालरूप से प्रकट हुए भगवान के प्रति उन गोपालिकाओं की निःशंक प्रीति हुई। अथवा ‘वृन्दावने वृन्दावनवर्तिनां गाः इन्द्रियाणि चारयति स्वस्मिन् प्रवर्तयति इति वृन्दावनगोचरः’- वे वृन्दावनवर्ती गोप, बालक, गोपांगना, वत्स, पशु, पक्षी और सरीसृप सभी की इन्द्रियों को अपने प्रति प्रवृत्त करते हैं इसलिये वृन्दावनगोचर हैं। अहो! जो भगवान ब्रह्मादि की भी इन्द्रियों के अगोचर हैं, जो बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्रों की इन्द्रियों के भी विषय नहीं होते वे ही अपनी असीम कृपा से वृन्दानवर्ती जीवों की समस्त इन्द्रियों के विषय हो रहे हैं। इसी से कहा है-
उन परम पुण्यवान् व्रजवासियों ने उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के साथ क्रीड़ाएँ कीं जो सत्पुरुषों के लिये साक्षात ब्रह्मानन्दमूर्ति, भावुक भक्तों के परम इष्टदेव और मायामोहित पुरुषों के लिये नर बालक थे। भावुकों का तो ऐसा कथन है कि जो ब्रह्म औपनिषदों के लिये केवल वृत्तिव्याप्य है, बड़े-बड़े भक्तों की भी केवल भावना का ही विषय है और जो अज्ञानियों के लिये एक बालक मात्र है, वही जिन्हें खेलने को मिल गया उन व्रजवासियों के सौभाग्य की क्या महिमा कही जाय? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज