भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः भगवान ने सर्वसाधन शून्य पामर प्राणियों पर कृपा करने के लिये ही यह लीला की थी, जिससे कि किसी भी प्रकार उनका चित्त भगवान में लगे। अथवा ‘ताः’ शब्द से मुमुक्षुरूपा प्रजा समझनी चाहिये। उस पर कृपा करने के लिये भगवान ने रमण की इच्छा की। वह मुमुक्षुरूपा प्रजा कैसी है? ‘रात्रीः’-‘रा दाने’ इस स्मृति के अनुसार दान करने वाली अर्थात दानोपलक्षित यज्ञादि कर्म करने वाली। जैसा कि कहा- ‘तमेतं ब्राह्मणा यज्ञेन दानेन तपसा ब्रह्म विविदिषन्ति।’ अथवा ‘भगवति स्वरूपेण सह सर्वसमर्पयित्री’ जो भगवान में अपने स्वरूप के सहित सर्वस्व समर्पण करने वाली है तथा जो ‘शरदोत्फुल्लमल्लिका’ है। “शरादिवत् द्यन्ति अवखण्डयन्ति उत्फुल्लमल्लिकाद्युपलक्षितानि संसारसुखानि यासां ताः।” अर्थात उत्फुल्लमल्लिकाओं के समान जो स्त्री-पुत्रादिरूप सांसारिक सुख हैं वे शरादि अस्त्र-शस्त्र के समान जिनका खण्डन करती हैं उन मुमुक्षुरूपा प्रजाओं को देखकर। इससे उन मुमुक्षुओं की पूर्ण योग्यता दिखायी गयी है, क्योंकि पूर्ण मुमुक्षु तभी होता है जबकि उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सांसारिक सुख भी उसे दुःखरूप दिखाई देने लगे। वास्तव में तो मुमुक्षता होती ही उस समय है जब संसार भयानक दिखाई देने लगे। उसे सांसारिक सुख शरादि के समान छेदन करने वाले दिखलाई देते हैं वही मुमुक्षु हो सकता है। ऐसी प्रजाओं को देखकर- “योगमायामुपाश्रितः -योगाय स्वेन सहासम्बन्धविच्छेदाय।” अपने साथ उनके असम्बन्ध का छेदन करने के लिये, अर्थात अपने साथ उनकी अभिन्नता स्थापित करने के लिये भगवान ने रमण की इच्छा की, कयोंकि यहाँ केलव व्रजदेवियों के साथ ही क्रीड़ा नहीं करनी थी, बल्कि श्रुतियों का आवाहन करके उनका भी अपने में तात्पर्य दृढ़ करना था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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