भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस श्लोक का एक अर्थ यह भी हो सकता है- ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’- भगवान ने रमण करने की इच्छा की। किसलिये? ‘ताः वीक्ष्य’-अज्ञानिजनरूपा जो प्रजा है उसे देखकर उसका कल्याण करने के लिये। वह प्रजा कैसी है-‘रात्रीः- रात्रि के समान अज्ञानरूप तम से व्याप्त। ये सब प्रजाएँ अनादि हैं; अतः भगवान् का रमण उनके कल्याण के ही लिये है। इसके सिवा वह प्रजा ‘शरदोत्फुल्लमल्लिकाः’ भी है- “शरदायां जाड्यमय्यां व्यवहारभूमौ उत्फुल्लमल्लिकास्विव सुख-बुद्धयः।” अर्थात-सुखदुःखमोहात्मिका जो जाड्यमयी व्यवहारभूमि, जो कि उत्फुल्लमल्लिका के समान आपात-रमणींय है उसमें सुखबुद्धि करने वाली। तात्पर्य यह है कि दुःखमयी व्यवहार-भूमि में सुखबुद्धि करने वाली प्रजा को स्नेहार्द्रदृष्टि से देखकर रमण की इच्छा कीः क्योंकि अज्ञानी प्रजा की सुखदुःखमोहातीत परब्रह्म में स्थिति होना अशक्य है। अतः जो प्राकृत लीलाएँ उनकी अभिरुचि के अनुकूल हैं, उनके कल्याण के लिये भगवान ने उन्हीं के समान रमण करने की इच्छा की। इसलिये- ‘अयोगमायामुपाश्रितः-‘अयोगेषु चित्तनिरोधादिनिःश्रेयससाधनशून्येषु या माया कृपा तामुपाश्चित्य’। अर्थात योग-चित्तवृत्तिनिरोधादि निःश्रेयस के साधनों से शून्य जो प्रजा उस पर जो कृपा वही माया है। उसका आश्रय लेकर रमण करने का विचार किया। क्योंकि जो शुद्ध परब्रह्म अशेष विशेष शून्य है उसका साक्षात्कार तो निरोधादि द्वारा ही किया जा सकता है। “अयोगेषु सर्वथा अयोग्येषु या माया कृपा तामुपाश्रित्य”- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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