भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
देव-पूजा स्थल सूर्ययमण्डल है, दीक्षा ही पूजा योग्यता-सम्पत्ति है, भगवान की परिचर्या ही अपने सम्पूर्ण दुरितों के क्षय का कारण है। भग शब्दार्थ- ऐश्वर्य-षांगुण्य-ही भगवान के श्रीहस्त में विराजमान लीला कमल है; इस दृष्टि से प्रथम वर्णित कमल आसनभूत कमल हैं। धर्म और यश ही भगवान के ऊपर ढुलने वाले चमर ओर व्यजन हैं, अकुतोभय वैकुण्ठधाम ही छत्र है, देवत्रयीरूप गरुड़ ही यज्ञस्वरूप भगवान के वाहन हैं, ऋग्यजुः- साम इन्हीं तीनों वेदों से ही यज्ञ की सम्पत्ति होती है, अतः वेदात्मा ही गरूड़ है, यज्ञस्वरूप विष्णु ही उन पर विराजमान होकर चलते हैं। चिद्रूपा भागवती शक्ति ही भगवत्प्रिया लक्ष्मी है, भगवद्रुपासना विधायक पंचरात्रादि आगम ही पार्षदाधिप विस्वक्सेन हैं। अणिमा, माहिमा आदि अष्ट विभूतियाँ ही भगवान के नन्द, सुनन्दादि पार्षद हैं। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्धरूप से विराट, हिरण्यगर्भ, अव्याकृत, तुरीय, विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीयादि रूप में भी उन्हीं चतुर्व्यह, चित्मूर्ति भगवान का स्वरूप वर्णित है। यह भगवान वेदों के भी कारण हैं। स्वयंदृक एवं स्वमहिमपूर्ण हैं। परमार्थतः सर्वविधभेद विवर्जित होने पर भी भगवान अपनी शक्तिभूता माया से ही विश्व का उत्पादन, पालन एवं संहरण करते हैं, अत एव ब्रह्मरूप विष्णु इन आख्याओं से, अनाच्छन्नज्ञान होते हुए भी विभिन्न रूप में प्रतीत होते हैं। फिर भी वस्तुतः भिन्न नहीं हैं, क्योंकि तत्त्वदर्शी विद्वानों को आत्मरूप से ही भगवान का उपलम्भ होता है। श्री भगवान, तुर्य एवं तुर्यातीत रूप से निर्गुण, निष्क्रिय, निर्मल, निरवद्य, निरंजन, निराकार , निराश्रय, निरतिशयाद्वैत परमानन्दस्वरूप हैं। सन्देह हो सकता है कि शुद्धाद्वैत परमानन्द परब्रह्म में वैकुण्ठ, प्रासाद, प्रकार, विमानादि अनन्त वंस्तु भेद कैसे हुए? यदि यह सब हैं तो निर्विशेषाद्वैत कैसे? इसका समाधान यह है कि जैसे शुद्ध सुवर्ण में कटक, मुकुट, अंगदादि अनेक भेद होते हैं, जैसे समुद्र-जल में स्थूल-सूक्ष्म तरंग हैं, जैसे समुद्र-जल में सूक्ष्म तरंग, फेन, वुद्बुदादि भेद होते हैं, जैसे भूमि में पर्वत, वृक्ष, तृण, गुल्म, लतादि अनन्त वस्तु-भेद होते हैं, वैसे ही अद्वैत परमानन्द ब्रह्म में वैकुण्ठादि भेद उत्पन्न हो जाते हैं। सब कुछ भगवान का स्वरूप ही है, भगवद्वयतिरिक्त अणुभर भी कुछ नहीं है- ‘‘मत्स्वपमेव सर्वमद्व्यतिरिक्तमणुमात्रं न विद्यते।’’ |
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