भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार श्रीप्रिया जी के कृपापात्र होने पर ही भगवान का अनुग्रह होता है। इसमें यह भी भेद है कि शुद्ध परब्रह्म का पदार्थों के साथ सम्बन्ध नहीं होता ‘असंगो न हि सज्जते’। अतः यह मानना पड़ता है कि वृत्युपहित चेतन ही पदार्थों का प्रकाशक होता है। यदि शुद्ध चेतन ही पदार्थों को प्रकाशित करने में समर्थ होता तो उसकी सत्ता तो सर्वत्र है, परन्तु घटकुड्यादि में पदार्थों को प्रकाशित करने का सामर्थ्य नहीं है। इसके सिवा चेतन की सत्तामात्र से ही पदार्थों की प्रतीति भी नहीं होती, क्योंकि चेतन का संश्लेष तो सन्निकृष्ट-असन्निकृष्ट सभी वस्तुओं के साथ है। परन्तु प्रकाश केवल उन्हीं वस्तुओं का होता है। जिनके साथ प्रमाणजन्य-वृत्यभिव्यक्त चेतन का संसर्ग होता है। उसी प्रकार यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्ध सभी व्रजांगनाओं से है तथापि जिस प्रकार स्वप्रकाश चेतन अन्तःकरणादिवृत्त्युपहित होकर ही वस्तुओं के प्रकाश का हेतु होता है वैसे ही भगवान भी अपनी परमान्तरंगा आह्लादिनी-शक्ति श्रीराधिका जी के कृपापात्रों पर ही अनुग्रह करते हैं। जिस प्रकार मंगलमय सुधासिन्धु में जो मधुरिमा है वह उसका स्वरूप ही है उसी प्रकार परमानन्दसिन्धु भगवान की जो आह्लादिनी शक्ति है वह भगवान से अभिन्न ही है। जिस प्रकार घटादि का प्रकाश अन्तःकरणवृत्युपहित चेतन से ही होता है किन्तु अन्तःकरण के प्रकाश के लिये किसी अन्य अन्तःकरण की आवश्यकता नहीं होती तथा अन्तःकरणादि तो स्वतन्त्रता से चेतन के प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर सकते हैं किन्तु घटादि अन्तःकरणवृत्त्युपहित होने पर ही उसका प्रतिबिम्ब ग्रहण कर सकते हैं, उसी प्रकार यहाँ जो वृषभानुनन्दिनी हैं वे तो परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण के साथ निपेक्षभाव से असाधारण रमणरूप सम्बन्ध का भोग कर सकती हैं किन्तु अन्य गोपांगनाएँ ऐसा नहीं कर सकतीं। अतः उनमें भी भगवान का सम्बन्ध स्थापित करने के लिये श्रीवृषभानुदुलारी का सम्बन्ध सम्पादन करना पड़ता है। अतः पहले वे इनसे तन्मय हो लेती हैं, उसके पश्चात भगवान से सम्बन्ध प्राप्त करती हैं। इसीलिये योगमाया का आश्रय लिया। अथवा “योगाय सम्बन्धाय या माया वंचना तामुपाश्रितोऽपि ताः वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे”- योग जो असाधारण सम्बन्ध उसके लिये भी माया यानी वंचना का आश्रय लेकर उन्होंने रमण के लिये मन किया। भगवान रमण के लिये भी माया का आश्रय लिया करते हैं। इसी से जब ऋषि-पत्नियाँ गयी थीं उस समय भी उन्होंने माया का ही आश्रय लिया था और उन्हें भी पातिव्रत का ही उपदेश किया था। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो परब्रह्म हैं। उनका सम्बन्ध भला किसको अभीष्ट न होगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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