भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसके सिवा इसमें एक दोष यह भी हो सकता था कि जो भगवान उनके वास्तविक परमपति थे उनमें तो उन्होंने जारबुद्धि की और जो अस्वाभाविक प्राकृत पति थे उनमें पति-बुद्धि की। जिस प्रकार तरंगों का मुख्य पति तो समुद्र ही है तरंगान्तरों से तो उनका आगन्तु-सम्बन्ध है, उसी प्रकार जीव का स्वाभाविक-सम्बन्ध तो अपने आश्रयभूत परब्रह्म से ही है, अन्य जीवों से तो केलव आगन्तुक-सम्बन्ध है, इसलिये वह अनित्य भी है, अतः सर्वान्तर्यामी भगवान का जारबुद्धि से आश्रय लिया गया-यह भी एक बड़ा दोष था। ये सारे अनौचित्य ‘अपि’ शब्द से सूचित होते हैं। किन्तु ये सब दोष होने पर भी भगवान से सम्बन्धित होने के कारण गुण हो गये। यह आलम्बन का ही माहात्मय था। उस जारबुद्धि से यह गुण हो गया कि जिस प्रकार जार के प्रति परकीया नायिका का स्वकीया की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है वैसे ही उन्हें भी भगवान के प्रति अतिशस प्रेम हुआ। अतः इससे उपासकों को बड़ा आश्वासन मिलता है। इससे बहुत त्रुटिपूर्ण होने पर भी उन्हें भगवत्कृपा की आशा बनी रहती है और प्रेममार्ग में आशा बहुत बड़ा अवलम्बन हैं, क्योंकि जीव, आशा होने पर ही प्रपन्न हो सकता है। इस प्रकार भगवान ने अन्यपूर्विका और अनन्यपूर्विका दोनों की प्रवृत्ति अपनी ओर ही दिखलाकर प्रेममार्ग को सबके लिये सुलभ कर दिया है। यह द्वितीय ‘ताः’ का तात्पर्य हुआ। अब तृतीय ‘ताः’ का अर्थ करते हैं। इस ‘ताः’ का अर्थ है ‘तदात्मिकाः’ अर्थात भगवत्स्वरूपा। पहले ‘ताः’ से तो वे गोपांगनाएँ विवक्षित थीं जिनका भगवान के साथ भृंगीकीट-न्याय से साधन द्वारा अभेद हुआ था। दूसरे ‘ताः’ से वे गोपांगनाएँ कही गयीं जो समुद्र और तरंग के समान मूलतः अभिन्न थीं। यह समुद्र अचिन्त्यानन्द-सुधासिन्धु है। इससे एक तो तरंगों का अभेद और दूसरा जैसे उसकी सुधा से सुधागत माधुर्य का अभेद। यह बहुत बड़ा अन्तर है। इस प्रकार की स्वरूपभूता व्रजांगनाएँ ही तीसरे ‘ताः’ से ही गयी हैं। जिस प्रकार जल में मधुरता, शीतलता आदि कई गुण हैं उसी प्रकार भगवान में भी कई शक्तियाँ हैं। भगवान की परमान्तरंगा आह्लादिनी-शक्तिरूपा श्रीवृषभानुनन्दिनी और उन्हीं की अवान्तर विकासरूपा ललिता-विशाखा आदि तीसरे ‘ताः’ से अभिप्रेत हैं। उन श्रीवृषभानुनन्दिनी की पदनख-चन्द्रिका की जो विभिन्न दीप्तियाँ हैं उन्हीं के अन्तर्गत ये ललिता-विशाखा आदि हैं। भगवान की सर्वान्तरतम दिव्यातिदिव्य शक्ति तो श्रीराधिका ही हैं, उन्हीं की अंशभूता उनकी प्रधान सहचरी हैं। यद्यपि उनमें तारतम्य है तथापि वे हैं सब-की-सब परमान्तरंगा ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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