भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः ये सब व्रजांगनाएँ स्वरूपतः तो सच्चिदानन्दरूपा ही थीं। पहले यह भी बतलाया जा चुका है कि अभिधानरूपा श्रुतियाँ और अभिधेयरूप देवता ये सभी वस्तुतः एक ही हैं। परन्तु मूलतः अभिन्न होने पर भी साधकों के कल्याणार्थ भगवान को शब्द का आविर्भाव करना ही पड़ता है; अन्यथा महाप्रलय में भी भगवान ने जीवों को मुक्त क्यों नहीं कर दिया? इसका कारण यही था कि वहाँ कल्याणकारिणी सामग्री का अभाव था। अतः परमदयालु और करुणामय होने पर भी भगवान कल्याण का क्रम रखते हैं। यदि उन पापी, पुण्यात्मा सभी का अक्रम से उद्धार कर दिया करते तो बात ही बिगड़ जाती। अतः प्रपंच के मूलभूत अनादि अज्ञान की निवृत्ति के लिये उन्होंने सभी प्रकार के वाक्यों का आविर्भाव किया है। श्रुतिरूप अभिधान और उनका लक्ष्य ब्रह्म, ये ऐसे ही हैं जैसे तरंग और समुद्र। यह तरंग और समुद्ररूप भेद इसीलिये है कि इसके बिना उनका ऐक्य बोध नहीं हो सकता। यदि भेद न हो तो लक्षण कैसे बने? जीव अपने अनादि अज्ञान का निवारण तभी कर सकता है जब वह परब्रह्म के साथ उसके कार्यभूत सम्पूर्ण प्रपंच का अभेद अनुभव करे; और उस भेद का निवारण महावाक्यरूप से उत्पन्न होने वाले बोध के द्वारा ही हो सकता है। किन्तु सब लोग आरम्भ से ही उस अभेद का अनुभव नहीं कर सकते। अतः उस योग्यता की प्राप्ति के लिये अन्यपरा श्रुतियों द्वारा अन्यान्य पदार्थों का निरूपण किया गया है। वास्तव में तो समस्त श्रुतियाँ और उनके प्रति पाद्य भी अनन्य ही हैं। यहाँ व्रजांगनाओं में अनन्यपरा श्रुतियाँ ही अनूढा है और अन्यपरा ही ऊढा है। परन्तु जिस समय ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’ इस सिद्धान्त का निश्चय हो जायगा। उस समय यही निश्चय होगा कि वस्तुतः ब्रह्मपरा में ही लीलावश अब्रह्मपरात्व की प्रतीति हुआ करती है। अतः गोपियों का दूसरे गोपों के साथ विवाहा जाना भी केवल विभ्रद ही है। वस्तुतः उनके परमपति तो एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही थे। उनका अन्यपूर्विकात्व तभी तक अनिवार्य रहेगा जब तक भगवान श्रीकृष्ण की सर्वात्मकता सुनिश्चित नहीं होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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