भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वे कात्यायनी-पूजन और विविधविध व्रताचरण रूप तपस्या करके योगारूढ़ हुई थीं। उससे यदि उन्हें एक रात्रि के लिये ही भगवत्सान्निध्य की प्राप्ति होती तो वह उन्हें किसी प्रकार सन्तुष्ट न कर सकता। उन्हें जो महान फल प्राप्त होने वाला था वह तो पूर्ण ब्रह्मसंस्पर्श था और ब्रह्मसंस्पर्श ही पूर्ण योगारोहण है। किन्तु यदि यह अल्पकाल के लिये होता तो उससे कैसे तृप्ति हो सकती थी? अतः उन्हें उनकी तपस्या का पूर्ण फल प्रदान करने के लिये भगवान की योगमाया ने एक ही रात्रि में अनन्तकोटि ब्राह्म रात्रियों का समावेश किया था। इसी से ‘इमाः क्षपाः’ और ‘ताः रात्रीः’ इन बहुवचनों का प्रयोग किया गया है। वेदान्त का यह सिद्धान्त है कि अल्पकाल में अनन्त काल का और अल्प देश में अनन्त देश का समावेश किया जा सकता है। स्वप्न में हम देखते ही हैं कि एक क्षण में ही वर्षों के प्रसंग का अनुभव हो जाता है। योगवाशिष्ठ में पाषाणोपाख्यान में एक शिला के भीतर ही ब्रह्माण्ड का प्रदर्शन कराया गया है तथा राजा लवण के उपाख्यान में भी दो-ढाई घड़ी के भीतर ही वर्षों के प्रसंग का अनुभव कराया गया है। इसी प्रकार यहाँ भी प्रहरचतुष्टयवती एक ही रात्रि में अनन्तकोटि ब्राह्म रात्रियों का समावेश किया गया है, जिससे उनकी चिरकालीन भगवत्सम्भोगलालसा की पूर्णतया पूर्ति हो। भगवान के आलिंगन का कितना महत्त्व है? इसका वर्णन हम कहाँ तक कर सकते हैं। हनुमान जी की अद्भुत सेवाओं से सन्तुष्ट होकर भगवान ने कहा था-
अर्थात हे कपे! मैं तुम्होरे एक-एक उपकार के बदले अपने प्राणों का समर्पण कर सकता हूँ; फिर वे भी बचे ही रहेंगे और उनके लिये हमें ऋणी रहना पड़ेगा। उन्हीं हनुमान जी को उन्होंने अपना अद्भुत आश्लेष प्रदान करते हुए कहा था-
भक्तों का सर्वस्वभूत यह भगवदाश्लेष वस्तुतः अत्यन्त दुर्लभ है। यह तो ब्रह्मा एवं सनकादि को भी प्राप्त होना कठिन है। इसी को ब्रह्मसंस्पर्श भी कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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