भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
धीरे-धीरे यह समाचार राजा के कानों तक पहुँचा। राजा ने उसे बुलाकर पूछा कि तुमने जो चित्र हमें 10000 में भी नहीं दिया वही हमारे एक साधारण सेवक को केवल उसकी धोती लेकर ही कैसे दे दिया? तब चित्रकार ने कहा-राजन! आपने उसका महत्त्व नहीं समझा था; इसलिये आप जो कुछ देते थे वह भी इसका पर्याप्त मूल्य नहीं था; किन्तु आपके सेवक ने उसका महत्त्व जाना और जो कुछ अधिक-से-अधिक वह दे सकता था वही दे दिया। इसलिये मैंने आपके 10000 की अपेक्षा भी उसकी धोती का अधिक मूल्य समझा था। एक दिन हमने भी एक चित्र देखा था। उसमें बिल्कुल एक ही रूप की दो स्त्रियाँ बनायी गयी थीं। उन दोनों के आकार-प्रकार एवं वेश-भूषा में कोई भी अन्तर नहीं था। दोनों ही आमने-सामने शोकमुद्रा में बैठी थीं। उस चित्र को देखकर समझ में नहीं आता था कि इसका क्या रहस्य है। बहुत विचार करने पर मालूम हुआ कि इसका प्रसंग इस प्रकार है- एक दिन श्रीवृषभानुनन्दिनी अपने मणिमय प्रांगण में बैठी थीं; उस समय उन्हें अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई दिया। उसे कोई अन्य नायिका समझकर उन्हें बड़ा खेद हुआ और उसका रूप-लावण्य देखकर वे सोचने लगीं कि यदि श्रीश्यामसुन्दर ने इस नायिका को देख लिया तो वे हमसे क्यों प्रीति करेंगे। वस्तुतः यह बात जो कही जाती है ठीक ही है कि श्रीभगवान और वृषभानुदुलारी परस्पर एक-दूसरे के सौन्दर्यातिशय का तो समास्वादन कर सकते हैं परन्तु वे अपने-अपने सौन्दर्य का भोग करने में असमर्थ हैं। ‘विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धे;’ उनका सौन्दर्य स्वयं उन्हीं को विस्मय में डाल देने वाला है। यही भाव उस चित्र में व्यक्त किया गया था। किन्तु जिस प्रकार इस रहस्य को समझने से पूर्व हमें वह चित्र विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं जान पड़ता था उसी प्रकार उस राजा को भी उस चित्रकार के लोय हुए चित्र में कोई विशेषता नहीं जान पड़ी। तात्पर्य यह है कि वस्तु तो एक ही होती है; किन्तु जो रसज्ञ हैं उन्हें उसकी विशेष रसानुभूति होती है; अरसिकों को तो आपात दृष्टि से उसका कोई विशेष महत्त्व दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार गोपांगनाएँ भगवान के सौन्दय-माधुर्यातिशय की सबसे बड़ी रसज्ञा थीं; इसलिये उससे दीर्घकाल में भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज