भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इससे सिद्ध हुआ कि गुणमय शरीर का त्याग किये बिना भगवदाश्लेष प्राप्त नहीं हो सकता। यही वेदान्त का भी सिद्धान्त है। वहाँ भी गुणमय शरीर में अनासक्त होने पर ही ब्रह्मसंस्पर्श की प्राप्ति होती है और उसी से परमानन्द का अनुभव होता है। श्रीमद्भागवत गीता का वचन है-
पुरुष का ब्रह्मसंस्पर्श प्राप्त करना क्या है? जिस समय श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा जीवन अन्नमयादि कोशों से मुक्त होकर स्वरूपस्थ होता है, उसी समय उसे ब्रह्म के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव होता है। इसीलिये महावाक्य के तात्पर्यार्थ में ‘तत्’ और ‘त्वम्’ पद का लक्ष्यार्थ लिया जाता है, वाच्यार्थ नहीं लिया जाता। यदि अवच्छेदवाद की दृष्टि से देखें तो उपाधि परिच्छिन्न चेतन ही जीव है और उपाधि निर्मुक्त ब्रह्म है तथा उपाधि के रहते हुए उनकी एकता का अनुभव नहीं हो सकता। प्रतिबिम्बवाद में भी, जल में प्रतिबिम्बित आकाश के समान बुद्धिरूप उपाधि में प्रतिबिम्बित चेतन ही जीव है। उसका महाकाशरूप ब्रह्म से जलरूप उपाधि के कारण ही भेद है और उपाधि की निवृत्ति होते ही दोनों की एकता हो जाती है। इस प्रकार उपाधिकृत परिच्छिन्नता आदि दोषों का आरोप करने से ही एक अनन्त पूर्ण तत्त्व दोषवान सा प्रतीत होता है। इसी से कहा है- “एकमपि सन्तमनेकमिव मन्यते।” अतः जब तक जीव गुणमय शरीर से संसक्त है, तक तक वह ब्रह्मसंस्पर्श का अधिकारी कभी नहीं हो सकता। जिसने उपाधि का बाध बरके त्वंपदार्थ का शोधन कर लिया है, वही तत्पदार्थ से अपना अभेद अनुभव करने में समर्थ हो सकता है। इसी प्रकार यहाँ गोपांगनाओं को भी अपने प्राकृत शरीर का अपनोदन कर शुद्ध रसमय शरीर प्राप्त करने के लिये भगवान ने एक वर्ष का व्यवधान रखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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