भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
ऐसा क्यों है? जिस प्रकार ‘परदारान्नाभिगच्छेत्’ इत्यादि निषेध वाक्यों का अतिलंघन करने से जीव नरकगामी होता है उसी प्रकार भगवदीय रहस्य के विषय में कुछ भी वाद-विवाद करने वाले पुरुष को अवश्य उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है, क्योंकि भगवान की गति अचिन्त्य है और अचिन्त्य विषयों के सम्बन्ध में तर्क करना सर्वथा निन्दनीय है- “अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत्।” अत: भगवद्विग्रह के अप्राकृतत्त्व के विषय में किसी प्रकार की शंका न करनी चाहिये। उसमें, उसका अनित्यत्व सिद्व करने वाले, सावयवत्वादि हेतुओं का अभाव है, क्योंकि वह प्राकृतत्त्व आदि दोषों से रहित है। इस क्रम से देखें तो भगवान अप्राकृत होने के कारण नित्य हैं। यदि कहो कि भगवद्विग्रह को अप्राकृत और नित्य मानने पर तो अद्वैतवाद भी सिद्ध न हो सकेगा, तो ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि प्रकृति की सत्ता वेदान्त सिद्धान्त के अनुसार नहीं बल्कि सांख्यमतसम्मत है। वेदान्तियों ने तो ‘ईक्षतेर्नाशब्दम्’ इत्यादि सूत्रों से उसका खण्डन किया है। यहाँ सांख्यवाीद यह आपत्ति करता है कि ‘सत्त्वात्संजायते ज्ञानम्’ इस उक्ति के अनुसार जबकि चेतन को सत्त्वगुण के संसर्ग से ही ज्ञान होता है तो सत्त्वगुण वाली प्रकृति को भी ज्ञान हो ही सकता है; अतः ‘ईक्षतेर्नाशब्दम्’ इस सूत्र के अनुसार भी वही जगत का उपादान कारण होनी चाहिये। यदि कहो कि सत्त्व की अपेक्षा से रहित चेतन में ही ज्ञान (ईक्षण) होता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि यह प्रश्न होता है कि चेतन में नित्य ज्ञान है या अनित्य? यदि नित्य कहें तब तो पुरुष की स्वतन्त्रता का व्याघात होगा। कारण, नित्य वस्तु का कर्ता के अधीन होना असम्भव है और तुम्हारे कथनानुसार ज्ञान चेतन कर्ता के अधीन होना चाहिये; इसके विपरीत यदि उसमें अनित्य ज्ञान माना जाय तो वह सहेतुक ही होना चाहिये। ऐसी अवस्था में हेतु के सम्बन्ध में भी ऐसा विकल्प होगा कि वह नित्य है या अनित्य। यदि हेतु नित्य है तो उससे नित्य ज्ञान होना चाहिये और यदि अनित्य है तो उसका भी कोई अन्य हेतु होना चाहिये, इससे अनवस्था दोष उपस्थित होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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