भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस वस्तु के मिलने की सम्भावना नहीं होती उसके लिये उत्कट इच्छा भी नहीं हुआ करती। अतः जब तक उन्हें भगवान दुर्लभ प्रतीत होते थे तब तक उनके प्रति उनका उत्कट प्रेम नहीं था और भगवत्प्राप्ति का साधन एकमात्र उत्कट प्रेम ही है। अब, जब भगवान ने प्रकट होकर उन्हें वरदान दिया तो उनको भगवद्दर्शन की योग्यता तो प्राप्त हो गयी थी परन्तु रमण की योग्यता नहीं थी। रमण की योग्यता तो तभी होगी जब भगवान को सुलभ समझकर उनके प्रति उत्कट प्रेम हो। अतः भगवान ने उन्हें वही साधन दिया जिससे कि वे उन्हें सुलभ समझने लगें। भगवान के वर देने से उन्हें भगवान की सुलभता अनुभव होने लगी और उन्हें विश्वास हो गया कि अब तो भगवान अवश्य रमण करेंगे। जब किसी इष्ट वस्तु की प्राप्ति की सम्भावना हो जाती है तो उसकी प्रतीक्षा असह्य हो जाया करती है। अतः भगवान के इस वरदान से उनका प्रेम इतना उत्कट हो गया जितना कि अब तक कभी न हुआ था। इसीलिये भगवान ने एक वर्ष का व्यवधान रखा था। इसका एक और भी कारण है। यह सिद्धान्त है कि प्राकृत गुणमय शरीर के साथ रमण करने की योग्यता नहीं रखता। इसके लिये अप्राकृत रसमय शरीर होना चाहिये। किन्तु इसकी प्राप्ति कैसे होती है? उसका प्रकार यह है-जिस दिन से प्राणी करुणासिन्धु श्रीभगवान की कृपा का अनुसन्धान करता है उसी दिन से उसका अप्राकृत रसमय शरीर बनना आरम्भ हो जाता है। इसे स्पष्टतया समझने के लिये एक बात पर ध्यान देना चाहिये। लोक में यह देखा जाता है कि ग्राह्य-ग्राहक भावों में साजात्य रहा करता है। तैजस नेत्र से तैजस रूप का ज्ञान होता है तथा आकाशीय श्रोत्र से ही आकाशीय शब्द का ज्ञान होता है। मन पाँचों भूतों के सात्त्विक अंश का कार्य है इसीलिये उससे पाँचों भूतों के गुणों का ग्रहण हो सकता है। इसी प्रकार यहाँ भी देखना चाहिये। भगवान प्राकृत हैं या अप्राकृत? वे तो सत्यज्ञानानन्तानन्दमूर्ति ही हैं।
उकने महान माहात्म्य को समझने में तो वेदान्तविद भी असमर्थ हैं। उनमें प्राकृत भाव का लेश भी नहीं है। दीपकलिका क्या है? वह शुद्ध अग्निमात्र ही तो है। जिस प्रकार बत्ती और तेल को निमित्त बनाकर अग्नि ही दाहकत्व-प्रकाशकत्व विशिष्टरूप में परिणत हुआ करता है उसी प्रकार परमान्तरंग अचिन्त्य-दिव्यातिदिव्य लीलाशक्ति को ही निमित्त बनाकर वह शुद्ध परमानन्दघन परब्रह्म ही भगवान कृष्ण रूप में प्रकट होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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