भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः श्रीजीव गोस्वामी कहते हैं कि जब तक ब्रह्म दूर रहता है तब तक लोग उसे निर्गुण निर्विशेष समझते हैं। फिर उसका विशेष अनुभव होने पर उसे परमात्मरूप से जाना जाता है, किन्तु जो उसकी नित्यसन्निधि में रहते हैं उन्हें वह अचिन्त्यानन्त कल्याण-गुणगणोपेत जान पड़ता है। इस प्रकार अनुभव के उत्कर्ष के साथ उत्तरोत्तर ब्रह्म के निर्विशेष, सविशेष और साकार स्वरूप का साक्षात्कार होता है। यहाँ अपने सिद्धान्त का पोषण करने के लिये उन्होंने यह भी कहा है कि ये ब्रह्म, परमात्मा और भगवान क्रमशः ज्ञानी, योगी और भक्तों की अपेक्षा से हैं तथा इनमें उत्तरोत्तर उत्कष्ट है। परन्तु इससे पूर्व तत्त्व का लक्षण करते हुए यह कहा गया है कि ‘तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।’ अर्थात जो सजातीय-विजातीय स्वगतभेदशून्य अद्वय ज्ञान है वही तत्त्व है। अतः यह बतलाना चाहिये कि लोग जो विशेषता दिखलाते हैं वह तत्त्व में है या केवल नामों में ही। यदि तत्त्व में कोई भेद न हो तो नामान्तर होने से ही उसके लक्षण में क्या अन्तर आ सकता है? जिस प्रकार यदि घट का यह लक्षण कर दिया कि ‘कम्बुग्रीवादिमान् घटः’ तो ‘कलश’ कहने से भी उसमें क्या अन्तर आ सकता है? अतः यदि तत्त्व का लक्षण ‘तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्’ ऐसा है तो नाम के भेद से उसमें क्या भेद हो सकता है? कोई लोग ‘अद्वय’ शब्द का अर्थ उपमारहित करते हैं। अतः उनके मत में उपमारहित ज्ञान ही अद्वय है। किन्तु ‘अद्वय’ शब्द का ऐसा अर्थ करना किसी प्रकार ठीक नहीं है। अद्वय का अर्थ तो देशकाल वस्तु परिच्छेद शून्य ही है “नेह नानास्ति किंचन”, “नात्र काचन भिदास्ति” इन वचनों में ‘नाना’ और ‘भिदा’ के साथ ‘किंचन’ और ‘काचन’ शब्द का प्रयोग सर्व प्रकार के नानात्व और भेद का निषेध करता है। अब यदि युक्ति से विचार किया जाय तो भगवान को अचिन्त्यानन्त कल्याणगुण-गणसम्पन्न मानने पर उन गुणों के कारण उनके शेषी में कोई उपकार होना भी आवश्य मानना पड़ेगा। यदि आप शेषी को सातिशय मानते हैं तब तो सिद्धान्त विरुद्ध होगा-ब्रह्म का सातिशयत्व तो किसी भी आस्तिक को मान्य नहीं हो सकता। आप जो कहते हैं कि उत्तरोत्तर सान्निध्य के बढ़ने पर भगवान के उत्तरोत्तर विशेष रूपों का अनुभव होता है उन विशेषताओं का यही तात्पर्य है न कि वे अपने आश्रय में किसी अतिशय का आधान करें। किन्तु यदि परब्रह्म स्वरूप से ही निरतिशय है तो सान्निध्य से उसमें क्या अन्तर पड़ेगा? यदि सान्निध्य को केवल उसकी विशेषताओं की अभिव्यक्ति का कारण मानोगे तो यह बतलाओं कि तुम्हारा वह सान्निध्य क्रियाकृत है या ज्ञानकृत। यदि क्रियाकृत है तो ब्रह्म में परिच्छिन्नता आ जायगी और यदि ज्ञानकृत है तो मायावाद का प्रसंग उपस्थित हो जायगा जो आपको अभीष्ट नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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