भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जैसे दूसरे प्रयोजन के लिये लाया हुआ भी जलपूर्ण घट अपने दर्शन मात्र से यात्री के लिये मंगलप्रद होता है उसी प्रकार जिसमें नित्य-ऐश्वर्य का योग हो उसे ‘भगवान’ कहते हैं। ऐश्वर्य छः हैं-
अर्थात समग्र ऐश्वर्य, समग्र धर्म, समग्र यश, समग्र श्री, समग्र ज्ञान और समग्र वैराग्य- इन छः गुणों का नाम ‘भग’ है। ये छः जिसमें हों वही भगवान है। ये सबके सब जीव में तो अल्प मात्रा में हुआ करते हैं किन्तु भगवान में निरतिशय होते हैं। यहाँ ‘भगवान’ शब्द में जो मतुप् प्रत्यय है वह नित्ययोग या अतिशायन में है।[1] तात्पर्य यह है कि भगवान में जो भग है वह आगन्तुक नहीं है, बल्कि उनका नित्ययोग है और वह निरतिशय है। अच्छा? याद भगवान में नित्य निरतिशय ऐश्वर्य हो भी तो तुम्हें क्या लाभ? इस पर हमें यही कहना है कि यह हमारे ही काम तो आयेगा और इसका प्रयोजन ही क्या हो सकता है? वस्तुतः भगवान को तो इसकी कोई अपेक्षा है नहीं, क्योंकि वे तो आप्तकाम हैं। ऐश्वर्य का काम क्या होता है? यही न कि वह अपने आश्रय में महत्त्वातिशय या सौख्यातिशय का आधान करे। जितने गुण हैं उनकी सफलता तभी होती है जब वे अपने आश्रय में सौख्यातिशय महत्त्वातिशय का आधन करें; अतः भगवान का ऐश्वर्य भी यदि उनमें इस प्रकार के किसी अतिशय का आधान नहीं करते तो वे भले ही अप्राकृत हों, व्यर्थ हैं। ये गुणगण शेष हैं और भगवान उनके शेषी हैं तथा शेष शेषी के लिये हुआ ही करता है। अतः अब ये देखना है कि जिसमें ये गुण हैं वह निरतिशय है या सातिशय? यदि सातिशय है तब तो ऐश्वर्यादि गुण उसमें कुछ अतिशयता का आधान कर सकते हैं और यदि निरतिशय ज्ञान और आनन्द ही भगवान का स्वरूप है तो किसी अतिशयता का आधान करने में असमर्थ होने के कारण इन गुणों का कोई प्रयोजन ही नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने।
सम्बन्धेऽस्ति विवक्षायां भवन्ति मनुबादयः।।
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