भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
‘श्री’ शब्द का अर्थ भगवान भी है। ‘श्रीयते सर्वैर्गुणैर्या स श्रीः’ अर्थात जो सम्पूर्ण गुणों द्वारा आश्रित हैं वे श्री हैं। अतः वे जैसे श्रीराधिका जी के लीला शुक है वैसे ही भगवान के भी हैं। इसलिये वे इस रहस्य से खूब अभिज्ञ हैं और उसका वर्णन करने में भी पटु हैं, क्योंकि शुक की बोली स्वभावतः ही मधुर होती है। इसी से किसी प्रति में ‘श्रीबादरायणिरुवाच’ है और किसी में ‘श्रीशुक उवाच’ है। जब श्रीशुकदेव जी इस कथा का वर्णन करने लगे तो उन्होंने सोचा कि यह तत्त्व तो परम दुरवगाह्य है, क्योंकि यह भगवत्स्वरूप है। परन्तु यह है परम श्रेयस्कर और श्रेय में बहुत विघ्न हुआ करते हैं, ‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि’। तिस पर भी यह तो परम श्रेय है, इसलिये इसमें और भी अधिक विघ्नों की सम्भावना है। अतः इसके आरम्भ में कोई ऐसा मंगल करना चाहिये जो सब प्रकार के विघ्नों की निवृत्ति करने वाला हो। भगवान मंगलों के भी मंगल और देवों के भी देव हैं- “मंगल मंगलानां च दैवतानां च दैवतम्।” उनके द्वारा मंगल को भी मंगलत्व प्राप्त होता है तथा सारे संसार का मंगल उस मंगलसिन्धु का एक बिन्दु है। मंगल में देवता का अनुस्मरण किया जाता है परन्तु वे तो देवताओं के भी देवता का स्मरण करते हैं। इसी से वे मंगलों का भी मंगल करते हुए इस प्रकार आरम्भ करते हैं- “भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः। यद्यपि ‘भगवान’ शब्द का अर्थ आगे किया जाता है तथापि यह श्रवण मात्र से मंगलाकारक है, इसलिये यहाँ मंगल के लिये भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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