भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
कुसुमासव ने झगड़ते हुए कहा कि यह शुक तो हमारे सखा श्रीव्रजराजकुमार का ही है, तुम्हारी स्वामिनी का यह तब समझा जायगा, जब तुम्हारे हाथ पर आ जाय। मधुरिका ने हँसते हुए कहा कि कुसुमासव, तुम्हारे सखा के श्रीहस्तकमल के संस्पर्श सुख का अनुभव करके शुष्क वंश की वंशी भी संग त्याग नहीं करती, फिर यह चेतन पक्षी श्यामसुन्दर के श्रीहस्तारविन्द के स्पर्श-सुख को कैसे त्याग सकता है? इसी समय श्रीव्रजेन्द्रगेहिनी ने आकर कहा-ललन, भोजन को देर हो रही है, क्यों नहीं आते? कुसुमासव कहने लगा-अम्बा! देखो यह मधुरिका व्यर्थ ही झगड़ती है। हमारे सखा के शुक को अपनी स्वामिनी का बतलाती है। मधुरिका ने नन्दरानी को अभिवादन किया। यशोदा ने स्नेह से मधुरिका का स्पर्श करते हुए कहा- क्यों बेटी, क्या है? मधुरिका ने कहा-देवि, कोई बात नहीं। यह शुक मेरी स्वामिनी वृषभानु कुमारी का है। इसके बिना वे व्याकुल हैं। मैं तो यही कह रही थी। श्रीव्रजेश्वरी ने कहा-बेटी, तुम जाओ। कुमार के खेलने जाने पर मैं भेज दूंगी। यह सुनकर मधुरिका प्रणाम कर चली गयी। श्रीकृष्ण और कुसुमासव दोनों ने ही प्रसन्न होकर शुक को दाड़िमी बीज आदि दिव्य पदार्थ खिलाये और फिर कुछ भोजन कर खेलने चले गये। इधर श्रीयशुमति ने अपनी दूती से शुक को भेजवा दिया। शुक ने अपनी स्वामिनी से उनके प्रियतम का सब समाचार सुनाया था। अतः यहाँ जो ‘श्रीशुक’ कहा गया है, उसका तात्पर्य ‘श्रियः शुकः’ श्रीजी का शुक, समझना चाहिये। ये वे श्रीजी हैं जिनके दिव्यातिदिव्य स्वरूप पर मुग्ध होकर सौन्दर्य-माधुर्य आदि गुणगण सर्वदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं। ‘श्रीयते सर्वैर्गुणैरिति श्रीः’ अतः ये शुकदेवजी भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधिका जी के अत्यन्त स्नेह-भाजन और परम अन्तरंग हैं। हमने ऐसा सुना है कि श्रीराधिका जी तो उन्हें श्रीकृष्ण नाम का ही पाठ पढ़ाती थीं, किन्तु जब वे चली जातीं तो श्रीश्यामसुन्दर प्रेमपूर्वक अपने मधुमय अधर-रसामृत से पोषित कर उन्हें ‘राधाकृष्ण राधाकृष्ण’ ऐसा युगल नाम का पाठ पढ़ाया करते थे। उस समय यदि राधिका जी आ जातीं तो उन्हें बड़ा संकोच होता और वह फिर यही कहतीं- ‘कृष्ण कहु, कृष्ण कहु, राधा मति कहु रे’ इससे जान पड़ता है कि वे दोनों ही के कृपापात्र थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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