भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
इत्यादि वचनों से शास्त्रों ने अपने-अपने वर्ण-आश्रम के अनुसार श्रौत-स्मार्त्त कर्मो से हो श्री भगवान की उपासना करना बतलाया है और श्रौत-स्मार्त्त कर्मों में तो पद-पद पर इन्द्र, अग्नि, वरुण, रुद्र, प्रजापति आदि देवताओं की पूजा दिखलाई पड़ती है। ऐसी हालत में अपने को वैदिक मानने वाला कोई पुरुष यह कहने का साहस कैसे कर सकता है कि ‘‘विष्णु के सिवाय कोई अन्य देवता मेरे लिए पूजनीय नहीं है?’’ यदि कहा जाय कि वहाँ उन इन्द्रादि देवताओं के रूप में भगवान विष्णु की ही पूजा होती है, तो इस तरह फिर सभी देवताओं की पूजा की जा सकती है।
जिन कामिनी, कांचन आदि विषयों की बड़े-बडे विवेकी महापुरुषों ने निन्दा की है, उन्हीं तुच्छ विषयरूप विष से भस्मीभूत चित्तवाले, और उन्हीं विषयों की प्राप्ति के लोभ से वशीभूत होकर, और तो क्या म्लेच्छों के चरणों पर मस्तक झुकाने वाले लोग समस्त पाप-समुदाय का नाश करने में समर्थ श्रीशिव, विष्णु आदि के वन्दन को जब अनन्यता का विघातक कहते हैं तब बड़ा आश्चर्य होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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