भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
तैत्तिरीयोपनिषद् में आचार्य अपने शिष्यों से कहते हैं- “यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि।” यह बहुत सम्भव है कि कोई चरित्र महापुरुषों के लिये उचित हो, किन्तु साधारण पुरुषों के लिये उचित न हो। संन्यासी लोग सन्ध्योपासन नहीं करते, इसलिये क्या गृहस्थों को भी उसे छोड़ देना चाहिये? फिर यहाँ तो अलौकिक लीलाकारी भगवान की बात है, जिसका अनुकरण करना तो दूर रहा, समझना भी महा कठिन है। इस प्रकार भगवान की यह रासलीला उच्चकोटि के योगारूढ़ों के लिये ही एक उच्च आदर्श है। इसके श्रवणमात्र से पुण्य होता है। सो कैसे?- उत्तरमीमांसा में ब्रह्म की उपासना कई प्रकार से बतलायी गयी है। वहाँ कहा है- “सर्ववेदान्तप्रत्ययं चोदनाद्यविशेषणात्” इस सूत्र पर ऐसा विचार हुआ है कि ब्रह्म तो एक ही है फिर किस प्रकार की उपासना को किस उपासना में समन्वित करना चाहिये? वहाँ बतलाया गया है कि यद्यपि उपास्य ब्रह्म तो एक ही है, तथापि गुणगण के भेद से उसमें भेद हो जाता है और उपासना का फल तत्तद्गुण विशिष्ट उपास्य के अनुरूप ही मिलता है। जैसे यदि हमारा उपास्य सत्यकामादिगुण विशिष्ट ब्रह्म होगा तो वह हमें सत्यकामादिरूप फल देगा और यदि वामनीत्वादिगुण-गणविशिष्ट ब्रह्म होगा तो उसमें हमें वामनीत्वादि फल प्राप्त होगा। अब यह प्रश्न होता है कि एक ही ब्रह्म की अनेकविध उपासना क्यों बतलायी गयी है? इसका उत्तर यही है कि यह उपास्य का भेद उपासक की योग्यता और कामना के अनुसार है। यहाँ रासलीला में उपास्य काम विजयी है, इसलिये इसके द्वारा काम विजयरूप फल प्राप्त होगा। इसी से यहाँ कहा गया है कि-
अर्थात, ‘जो पुरुष श्रद्धा सम्पन्न होकर व्रजबालाओं के साथ की हुई भगवान विष्णु की इस क्रीड़ा का श्रवण या कीर्तन करेगा, वह परम धीर भगवान में पराभक्ति प्राप्त करके शीघ्र ही मानसिक रोगरूप काम से मुक्त हो जायगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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