भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वस्तुतः भगवान तो विधि-निषेधातीत हैं। वे केवल लोकशिक्षा के लिये ही शास्त्रीय श्रृंखला का अवलम्बन करते हैं, क्योंकि शास्त्रादि लोगों को मर्यादापालन में वैसा परिनिष्ठत नहीं कर सकते जैसा कि उस मर्यादा का पालन करने वाले महापुरुष कर सकते हैं। अतः शास्त्र के अर्थज्ञान के साथ शास्त्रार्थ के अनुष्ठान में परिनिष्ठित व्यक्तियों के सहवास की भी बहुत आवश्यकता है। अतः लोगों को वैदिक-स्मार्त्त कर्मों में प्रवृत्त करने के लिये ही भगवान स्वयं भी उनका यथाविधि अनुष्ठान किया करते थे-
इस प्रकार के लोकसंग्रह के लिये ही इन सारी वैदिक एवं स्मार्त्त मर्यादाओं का पालन किया करते थे। जो बन्दर बहुत चंचल होता है उसे संयत करने के लिये बहुत लंबी श्रृंखला बाँधी जाती है। फिर जैसे-जैसे शान्त होता जाता है वैसे-वैसे ही उसकी श्रृंखला छोटी कर दी जाती है। यहाँ तक कि अन्त में उसे खुला छोड़ देने पर भी वह चुपचाप बैठा रहेगा। इसी प्रकार अत्यन्त चंचल चित्त के निरोध के लिये विधि-निषेधरूप लंबी श्रृंखला की आवश्यकता है। कारण, शास्त्रीय श्रृंखलाशून्य पुरुष के देहेन्द्रियादि की चेष्टाओं का भी नियमन अशक्य है, फिर उनके मन की चेष्टाओं का निरोध कैसे हो सकता है? इसी से मन को सर्वथा निश्चेष्ट करने के लिये पहले देहादि की शास्त्रीय श्रृंखलानिबद्ध चेष्टा सम्पादन करनी चाहिये परन्तु पीछे जैसे-जैसे उसकी उच्छृंखलता कम होती जाती है वैसे-वैसे ही उसकी श्रृंखला भी छोटी होती जाती है। वह पहले तो काम्य कर्म द्वारा स्वाभाविक काम और कर्म का निराकरण करता है, फिर पारलौकिक महत्त्व फल वाले कर्मों से क्षुद्र फल दायक काम्य कर्मों को त्यागता है। तत्पश्चात निष्काम कर्म द्वारा सभी काम्य कर्मों को छोड़ देता है और फिर ध्यान-समाधि आदि से सब प्रकार की चेष्टाओं का निरोध कर ठीक-ठीक नैष्कर्म्य को प्राप्त होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर सूक्ष्मतम-साधन का अभ्यास करते-करते अन्त में समाधिस्थ होता है। उस समय कोई आलम्बन न होने पर भी उसका मन सर्वथा निश्चेष्ट रहता है; और फिर उसे किसी प्रकार की श्रृंखला की अपेक्षा ही नहीं रहती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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