भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः जिस प्रकार कण्टकादि उत्पन्न करने वाली शक्तियों की अपेक्षा सुकोमल एवं सुगन्धित पुष्प उत्पन्न करने वाली शक्ति अत्यन्त उत्कृष्ट और विशुद्ध होती है उसी प्रकार प्रपंचोत्पादिनी शक्तियों की अपेक्षा भगवान की दिव्य मंगलमयी मूर्ति का स्फुरण करने वाली शक्ति परम विलक्षण होनी ही चाहिये। उसी के द्वारा भगवान अचिन्त्य सौन्दर्य-माधुर्य-सुधामयी मंगलमूर्ति धारण करते हैं। इसी से प्रपंचातीत प्रत्यगभिन्न परमात्मतत्त्व में निष्ठा रखने वाले महामुनीन्द्रों के मन भी अनायास ही उस भगवन्मूर्ति की ओर आकृष्ट हो जाते हैं। इसी विलक्षण शक्ति का निर्देश पराशक्ति एवं अन्तरंगा शक्ति आदि शब्दों से भी किया जाता है। वह शक्ति भी भगवत्स्वरूप में अप्रविष्ट रहती हुई ही उसके प्राकट्य का निमित्त होती है। जिस प्रकार उपाधिविरहित, अत: दाहकत्व-प्रकाशकत्व रहित अग्नि के दाहकत्व-प्रकाशकत्व विशिष्ट दीपशिखादि रूप की अभिव्यक्ति में तेल और बत्ती आदि केवल निमित्त मात्र ही हैं, मुख्य अग्नि तो दीपशिखा ही है, अथवा जैसे तरंगविरहित नीरनिधि के तरंगयुक्त होने में वायु केवल निमित्त मात्र ही है। वास्तव में तो तरंग युक्त समुद्र विलक्षण रूप में प्रतीत होने पर भी सर्वथा वही है जो कि निस्तरंगावस्था में था, ठीक उसी प्रकार विशुद्ध लीलाशक्ति रूप निमित्त से शुद्ध परब्रह्म ही अनन्त कल्याण गुणगण विशिष्ट सगुण विग्रह में अभिव्यक्त होते हैं; किन्तु वस्तुतः उनका वह विग्रह मूर्तिमान शुद्ध परमानन्द ही है। उसमें उस दिव्यशक्ति का भी निवेश नहीं है, वह तो तटस्थ रूप से ही उसकी निमित्त होती है। इसी से भगवान की सगुणमूर्ति के विषय में ‘आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादि’, ‘आनन्दैकरसमूर्तयः’ इत्यादि उक्तियाँ हैं। इसी से उसकी मधुरिमा बड़े-बड़े सिद्ध मुनीश्वरों के भी मनों को मोहित कर देती है। जिस समय बालयोगी सनकादि वैकुण्ठधाम मे भगवान की सन्निधि में पहुँचे उस समय प्रभु के पादारविन्द-मकरन्द के आघ्राण मात्र से उनका प्रशान्त चित्त क्षुभित हो गया-
इसी से बहुत से सहृदय महानुभाव निर्विशेष परब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने पर भी प्रभु के प्रेमपथ के पथिक होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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