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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
‘‘तम आसीत्तमस्यागूढ़मग्रे’’ इस श्रुति में तम को ही सबका आदि और कारण कहा गया है। उसी मैं वैषम्य होने से सत्त्व, रज का उद्भव होता है। तम का नियन्त्रण करना सर्वापेक्षयाऽपि कठिन है। भगवान शिव तम के नियन्ता हैं, तम के वश नहीं है। शिव भयानक भी हैं, शान्त भी हैं, सर्वसंहारक, कालकाल, महाकालेश्वर, महामृत्युंजय भगवान में उग्रता उचित ही है। ब्रह्मक्षत्रोपलक्षित समस्त प्रपंच जिसका ओदन है, मृत्यु जिसका दालशाक है, मृत्युसहित संसार को जो खा जाता है, उसका उग्र होना स्वभाविक है। शिव से भिन्न जो भी कुछ है, उन सबके संहारक शिव हैं। इसीलिये विष्णु को उनका स्वरूप ही माना जाता है। अन्यथा भिन्न होने पर तो उनमें भी संहार्यता आ जायगी। वस्तुतः हरिहर, शिव विष्णु तो एक ही हैं। उनमें अणुभर भी भेद है ही नहीं। ‘‘भीषास्माद्वातः पवते।’’ भगवान के भय से ही वायु अग्नि, सूर्य मृत्यु अपना काम करते हैं। ‘‘महद्भयं वज्रमुद्यतम’’ समुद्यत महावज्र के समान भगवान से सब डरते हैं, तभी भगवान को मन्यु या चण्ड कोपरूप माना गया है। ‘‘नमस्ते रुद्र मन्यवे’’ हे रुद्र! आपके मन्युस्वरूप की मैं वन्दना करता हूँ। वही शक्तिरूपधारिणी होकर चण्डिका कहलाते हैं, फिर भी वह ज्ञानियों और भक्तों के लिये रसस्वरूप हैं।‘‘रसो वे सः’’, ‘‘एष ह्येवानन्दयाति। ’’[1]
इस मन्त्र में शिव को शिवस्वरूप, कल्याणदाता, मोक्षदाता कहा गया है। इस तरह जब अनादि, अपौरूषेय वेदों एवं तन्मूलक इतिहास, पुराण, तन्त्रों द्वारा शिव का परमेश्वरत्व, शान्तत्त्व, सर्वपूज्यत्व सिद्ध होता है, तब शिव की पूजा अनार्यों से ली गयी है इन बेसिर-पैर की बातों का क्या मूल्य है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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