भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस प्रकार एक सुधासिन्धु में नाना प्रकार के तरंगों का प्रादुर्भाव होता है उसी प्रकार दशम स्कन्ध में जितनी लीलाओं का प्रादुर्भाव हुआ है वे सब भगवान की नित्य लीला की ही अभिव्यक्ति मात्र है। अतः भगवत्लीला सम्बन्धी जितना विषय है, वह सम भगवद्रूप ही है। आचार्यों का ऐसा मत है कि सम्पूर्ण भागवत में दशम स्कन्ध सार है, उसका भी सारातिसार रासपंचाध्यायी है। सम्पूर्ण शास्त्र भगवान के वाङ्मय विग्रह हैं; भिन्न-भिन्न शास्त्र उस वाङ्मय भगवद्विग्रह के ही स्वरूप हैं। उनमें श्रीमद्भागवत भगवान का सविशेष-निर्विशेष सम्मिलित स्वरूप है। उनमे सर्ग-विसर्गादि दसों तत्त्वों का सांगोपांग वर्णन है। किन्तु दशम स्कन्ध में केवल आश्रय नामक दशम तत्त्व का ही वर्णन है। अतः दशम स्कन्ध मानो आश्रय नामक दशम तत्त्व का ही वाङ्मय विग्रह है तथा उसमें जो रासपंचाध्यायी है वह उसका प्राण है। इस रासपंचाध्यायी के अनेक प्रकार अर्थ किये जाते हैं। आचार्यगण जो एक ही वाक्य की अनेक प्रकार व्याख्या किया करते हैं उसमें उनका यही तात्पर्य होता है कि किसी-न-किसी प्रकार जीवों का भगवान में प्रेम हो। देवर्षि नारद को संक्षेप में श्रीमद्भागवत का उपदेश करके उनसे भी ब्रह्मा जी ने यही कहा था-
श्रीमद्भागवत में यद्यपि शुद्ध निर्विशेष सच्चिदानन्दघन तत्त्व ही वर्णित है तथापि यह आग्रह भी उचित नहीं है कि उसमें द्वैत का वर्णन है ही नहीं और न निर्गुणवादियों का यह कथन ही उचित है कि उसमें सगुणवाद नहीं है। वास्तव में भागवत में प्रेम विघातक वेदान्त नहीं है। इसमें तो भक्ति, विरक्ति और भगवत्प्रबोध तीनों का ही वर्णन है। पहले कहा जा चुका है कि रासपंचाध्यायी श्रीमद्भागवत का प्राण है। इसमें सर्वान्तरतम वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। याज्ञिकों के यहाँ इसका बड़ा अच्छा क्रम है। वेदी के सबसे निकट यूप होता है। पात्र उसकी अपेक्षा भी अन्तरतम है। देवताओं का अन्तरंग हविष्य है और पात्र उसी अपेक्षा बहिरंग हैं तथा अध्वर्यु उनकी अपेक्षा भी बहिरंग हैं। इसलिये यदि ऋत्विक्गण कोई पात्र लाते हैं तो स्वयं यूप के बाहर होकर निकलते हैं, किन्तु पात्र को यूप और वेदी के बीच में होकर निकालते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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