भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसे सी मातृपितृशतादपि हितैषिणी भगवती श्रुति ने भी यही कहा है- “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्। तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत।।” इत्यादि। इस प्रकार ब्रह्म को प्रपंच का कारण प्रतिपादन करने में श्रुति का केवल यही तात्पर्य है कि जिसमें लोग परमाणु, प्रकृति आदि जड़ वस्तुओं को इसका कारण न मान लें। इसमें यह शंका हो सकती है कि दृश्य तो असत जड़ एवं दुःखस्वरूप है; उसका कारण सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म कैसे हो सकता है? कार्य में सर्वदा कारण के गुणों की अनुवृत्ति हुआ करती है। कारण और कार्य की विजातीयता प्रायः देखने में नहीं आती। इसका समाधान यह है कि यद्यपि मुख्यतया तो यही नियम देखा जाता है, परन्तु कहीं-कहीं इसमें विषमता भी होती देखी गयी है। देखो, जड़ गोबर से बिच्छू आदि चेतन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार चेतन ब्रह्म से जड़ प्रपंच की उत्पत्ति भी हो सकती है। इस प्रकार यद्यपि आरम्भ में तो ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति का ही प्रतिपादन किया जाता है तथापि अन्ततः सिद्धान्त तो यही है कि प्रपंच की उत्पत्ति ही नहीं हुई। इसलिये यह जो कुछ प्रतीत होता है, बिना हुआ ही दिखाई देता है। इसी से यह अनिर्वचनीय है। अतः आभास और निरोध-आरोप और अपवाद अर्थात बन्ध और मोक्ष अज्ञान जनित ही हैं-
श्रुति कहती है- “न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यविनाशी वारेऽयमात्मानुच्छित्तिधर्मा।” यहाँ ‘प्रेत्य’ का अर्थ है ‘मरना’। जिस समय तत्त्वज्ञ देहेन्द्रियाद्याकार में परिणत भूतों से उत्थान करता है उस समय वह मानो मर जाता है। फिर उसका कोई नामरूप नहीं रहता। जैसे नमक का डला समुद्र का जल ही है। वह वायु आदि के संयोग से लवणखण्ड के रूप में परिणत हो गया है। उसे यदि समुद्र में डाल दिया जाय तो वह फिर उपधि के संसर्ग से शून्य होकर समुद्ररूप ही हो जायगा। उसी प्रकार अन्नमयादि कोशों में परिणत जो उपाधि है, उससे सम्बन्ध छूट जाने पर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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