भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
उनकी महिमा को द्योतित करने वाला एक अन्य श्लोक भी है-
अर्थात जिन्होंने उपनयन संस्कार के लिये विधिवत गुरुपसदन नहीं किया और जैसे-तैसे पिता के उपनयन संस्कार कर देने पर भी जो उपनयन सम्बन्धी क्रियाकलाप से उपरत थे उन शुकदेव जी को जाते देखकर उनके विरह से आतुर होकर जिस समय ‘हे पुत्र!’, इस प्रकार पुकारते हुए श्रीव्यास जी उनके पीछे गये तो प्रत्येक वृक्ष में जो ‘पुत्र’ शब्द की प्रतिध्वनि आ रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो वृक्ष भी तन्मयभाव से ‘पुत्र-पुत्र’ चिल्ला रहे हैं। भगवान शुकदेव जी परम तत्त्वज्ञ और महायोगी होने के कारण सर्वभूतहृदय हैं। “सर्वभूतानां हृत् अयते विजानाति” जो सम्पूर्ण भूतों के हृत् और उसके विचारों को जानते हैं अथवा ‘स सर्वभूतानां हृत् अयते नियमयति’ जो समस्त प्राणियों के हृत का अयन नियमन करते हैं, इन व्युत्पत्तियों के अनुसार श्रीशुकदेव जी सर्वभूत हृदय हैं। उनके सिवा अन्य तत्त्वज्ञ भी यद्यपि अपने पारमार्थिक स्वरूप से सर्वान्तरात्मा ही हैं, तथापि दूसरे के चित्त् के नियन्त्रणादि की शक्ति बिना योग के नहीं हो सकती; इसी से ‘हृत् अयते नियमयति’ यह दूसरी व्युत्पत्ति उनके महायोगित्व का परिचय देती है। उससे उनका परमतत्त्व और महायोगी होना सिद्ध होता है। इस प्रकार सबके हृदय होने के कारण वे वृक्षों के भी अन्तरात्मा हैं। अतः उस समय वृक्षों से ‘पुत्र’ शब्द की जो प्रतिध्वनि हो रही थी उससे जान पड़ता था कि वह वृक्षों के द्वारा मानों स्वयं ही श्रीव्यास जी को ‘पुत्र’ कहकर सम्बोधन कर रहे थे। ऐसा करके वे उन्हें उपदेश कर रहे थे कि “पिताजी! आप जो हमें पुत्र-पुत्र कहकर पुकार रहे हैं यह आपका व्यामोह ही है। हमारा-आपका जो पिता-पुत्र सम्बन्ध है, वह तात्त्विक नहीं है। कभी हम आपके पुत्र होते हैं तो कभी आप भी हमारे पुत्र हो जाते हैं, अतः आपको इस मायकि सम्बन्ध के मोह में न फँसना चाहिये।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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