भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि देखा जाय तो लौकिक विषयों में भी यही नियम अधिक काम कर रहा है। हमें एक साधारण पुरुष की ऊँची से ऊँची बात उतनी मूल्यवान नहीं जान पड़ती, जितनी कि किसी गण्यमान्य व्यक्ति की साधारण-सी बात जान पड़ती है। जिस पुरुष के प्रति हमारी श्रद्धा है उसकी बहुत मामूली बात पर भी हम बहुत ध्यान देते हैं। इससे निश्चय होता है कि लौकिक विषयों में यद्यपि प्रायः ‘वक्तृविशेषनिःस्पृहता’ होती है; वहाँ बालक से भी शुभ ज्ञान ग्रहण करने चाहिये’-यही नीति काम करती है तथापि सर्वांश में नहीं। कभी-कभी वक्ता की आप्तता का मूल्य वहाँ भी बढ़ जाता है। यही बात वेद के विषय में है। वेद बहुत युक्ति-युक्त अर्थ को कहता है, इसीलिये वह माननीय हो ऐसी बात नहीं है; बल्कि बात तो ऐसी है कि वेद का कथन होने के कारण ही वेदार्थ माननीय है। चोर अच्छी बात कहे तब भी उसमें आस्था नहीं हो सकती। अब हम प्रकृत विषय पर आते हैं रासपंचाध्यायी के वक्ता श्रीबादरायणि हैं। “बदाराणां समूहो बादरं नरनारायणाश्रमोऽयनमाश्रयो यस्य स बादरायणः तस्यापत्यं बादरायणिः।” ‘बदर’ बेर को कहते हैं, यहाँ उससे नरनारायणाश्रम उपलक्षित है। वही जिनका अयन आश्रय निवास स्थान अर्थात तपोभूमि है वे भगवान व्यास जी ही बादरायण हैं। उन्हीं के पुत्र श्रीबादरायणि हैं। यहाँ भगवान शुकदेवजी को जो ‘बादरायणि’ कहा गया है उसका तात्पर्य यही है कि उनका महत्त्व अपने व्यक्तित्व के कारण ही नहीं है बल्कि पिता और पिता की निवास-भूमि से भी उनकी पवित्रता द्योतित होती है। अर्थात भगवान श्रीशुकदेव जी स्वयं ही पवित्र हों, ऐसी बात नहीं है, उन्हें तो उनके पिता ने परम-पवित्र बदरिकाश्रम में तप करके उस तप के फलस्वरूप ही प्राप्त किया था। बदरिकाश्रम ज्ञानभूमि है; अतः वहाँ जो तप होगा वह भी अत्यन्त विलक्षण ही होगा। उसके फलस्वरूप श्रीभगवान या भगवान के परमान्तरंग निकुंजमन्दिरस्थ लीलाशुक ही श्री शुकदेवरूप में प्रादुर्भूत हुए हैं। भगवान व्यास जी में भी केवल तप से ही तेज आया हो-ऐसी बात नहीं है, वे तो वेदार्थ का निरूपण करने के लिये अवतीर्ण हुए साक्षात श्रीनारायण ही थे। ‘केशवं बादरायणम्’। यों तो वे स्वयं ही नारायण हैं; तिस पर भी उन्होंने बदरिकाश्रम में विविध प्रकार का तप किया है। उन्हीं से जिसका जन्म हुआ है वे श्री शुकदेव जी ही इस तत्त्व के वक्ता हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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