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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
जिन विचारों और आचारों को पाश्चात्य लोग भी छोड़ रहे हैं, भारत के नक्काल आज भी उन्हीं की नकल उतारने में तथा पाश्चात्यों की भद्दी नकल उतारने में परेशान हैं। धार्मिकता, आध्यात्मिकता से शून्य वैज्ञानिक-सभ्यता के दुष्परिणाम से पाश्चात्य विद्वान भी उद्विग्न हो रहे हैं, वे लोग भी धर्म और ईश्वर की आवश्यकता समझ रहे हैं। परन्तु भारतीयों को आज भी नवीन सभ्यता का ही स्वप्न दीखता है। संसार में कोई चीज पुरानी या नयी होने से ही आदरणीय नहीं होती, किन्तु उसके गुणागुण की ओर अच्छी तरह से ध्यान देना चाहिये- “सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।” पृथ्वी, आकाश, वायु, आत्मा और स्वास्थ्य पुराना ही है, परन्तु क्या इतने से ही यह सब हेय है? भोजन करके भूख मिटाने और पानी पीकर प्यास मिटाने की पद्धति पुरानी ही है, फिर भी क्या त्याज्य है? रोग, विपत्ति नवीन होने पर भी क्या आदरणी है? यदि नहीं, तब तो अनादि अपौरुषेय वेदादि सच्छास्त्रों द्वारा प्रदर्शित मार्ग से लौकिक-पारलौकिक उन्नति के लिये प्रयत्न करना उचित है। जो मार्ग शास्त्रोक्त न भी हो फिर भी शास्त्र के अविरुद्ध हो, तो काम में लाया जा सकता है। वेद, इतिहास, पुराण, दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का प्रचार होने पर सब तरह की समस्याओं का समाधान हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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