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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
आज कितने ही व्यक्ति तो साधुओं को धर्म-संस्कृति के रक्षण में अप्रवृत्त देखकर उन्हें कोसते हैं। कितने ऐसे भी हैं, जो दुनिया के अनर्थ करने में, प्रपंच रचने में किंचित भी संकोच नहीं करते; परन्तु धर्म-संस्कृति के रक्षणार्थ उद्योग को प्रपंच ही मानते हैं। राष्ट्र और विश्व की शान्ति को असम्भव और तदर्थ प्रयत्न करने वालों को सर्वथा स्वार्थपरायण ही सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। विशेषतः गृहस्थों और युवकों का कार्यकाल में वैराग्य, असमर्थों का कार्य में राग होना हानिकारक है। आज भी शास्त्र और धर्म को सरपंच मानकर, शास्त्र और धर्म का प्रसार करते हुए, उसी के आधार पर यदि संगठन किया जाय तो सम्पूर्ण अनर्थ दूर हो सकता है। परन्तु शास्त्र जानने वाले और धर्म में प्रेम रखने वाले इस ओर से अत्यन्त अपरिचित और विमुख हो रहे हैं। शास्त्र और धर्म से अपरिचित ही उच्छृंखल मार्ग से संघटन करना और विश्व की समस्या हल करना चाहते हैं। दूसरे के गुणों को न देखकर दोषों का ही दर्शन करते हैं। अपने दोषों का बिल्कुल चिन्तन न करके गुण ही देखना चाहते हैं। शास्त्रज्ञ धार्मिक जन शास्त्रोक्त-मार्ग के अनुसार चलकर राष्ट्र या संसार का पथ प्रदर्शन नहीं करना चाहते। शास्त्र और धर्म के रहस्य और महत्त्व को न समझने वाले लोग, धर्मों और शास्त्रों में आमूलचूल परिवर्तन करना चाहते हैं। वे श्रौतस्मार्त्त्त वर्णाश्रम धर्म की बातों को आज अनावश्यक समझते हैं। भगवदाराधना में अपेक्षित परम मांगलिक घण्टाशंख निनाद का ‘टन-टन’, ‘पों-पों’ कहकर प्रहसन करते हैं। मठाधीश, मन्दिराधिपति, जागीरदार सन्त-महन्त अपने द्रव्यों को धर्मकार्य में, संस्कृत विद्यालय, पुस्तकालय तथा धर्म प्रचार कार्य में नहीं लगाना चाहते, तो दूसरे उन सबको छीनकर सत्कार, पूजा आदि को हटाकर या साधारण करके स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी बनाना चाहते हैं। विधवाश्रम, हरिजन फण्ड, अनाथालय तथा अस्पताल में सब कुछ लगाना चाहते हैं। यदि आस्तिक अपनी माता, बहिनों को सावित्री, सीता जैसी साध्वी बनाने का प्रयत्न नहीं करते, तो दूसरे लोग विलायती लेडी बनाने में सफल होना ही चाहते हैं। हम इतना ही कहना चाहते हैं कि समय रहते लोगों को सावधान हो जाना चाहिये। लोग बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि ‘अब गत शताब्दियों के दिन लद गये। आज के वैज्ञानिक युग में पुराने जमाने के सड़े-गले नियमों की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को चाहिये कि दुनिया के परिवर्तन के साथ ही अपने आपको परिवर्तित करते चलें। देश काल की परिस्थिति के अनुसार धर्म, कर्म और शास्त्र का निर्माण होना चाहिये।’ इन लोगों की बातों पर ध्यान दिया जाय, तो प्रतीत होगा कि यह विचार भी अब पुराने होते जा रहे हैं; तथापि जैसे सावन के अन्धे को ग्रीष्म में भी हरियाली की ही प्रतीति हो, वैसे ही आज के लोगों की धारणा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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