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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
जहाँ धर्म की चर्चा नहीं वहाँ ऐसी-ऐसी भयानक विपत्तियाँ आती हैं कि नगर के नगर ज्वालामुखियों में जल जाते हैं। कभी-कभी बड़े-बड़े देश के देश अकस्मात् धरातल में विलीन हो जाते हैं। कभी समुद्र की गोद में दिखाई देते हैं। कभी भयानक संग्रामों से आपस में ही कट मरते हैं। शान्ति की दृष्टि से आज भी भारत में और देशों की अपेक्षा गनीमत है। आध्यात्मिकता और धार्मिकता का ही फल है कि आज भी यहाँ लूट-खसूट कर दूसरों की सम्पत्तियों को आत्मसात् करने में संकोच है। यहाँ की सभ्यता-संस्कृति आज भी बची है। संसार में हजारों संस्कृतियाँ उत्पन्न होकर मिट गयीं, परन्तु प्राचीनतम भारतीय संस्कृति आज भी सुरक्षित है। आज भी भौतिक दृष्टि में कितने ही बढ़े चढ़े देशों के समझदार विद्वान भारत से बहुत कुछ आशा कर रहे हैं। कितने ही पाश्चात्य विद्वान शान्ति-सुख के लिये बराबर भारत की शरण आ रहे हैं। इसके अतिरिक्त आज तो ऐसा कोई भी राष्ट्र और समूह नहीं है, जो धर्म या ईश्वर को किसी न किसी रूप में न स्वीकार करता हो। धर्मवादिनी, ईश्वरवादिनी संस्थाओं को गैरकानूनी करार देनेवालों, ईश्वर और धर्म को साम्य विरोधी समझकर अपने देश से निकल जाने का आदेश देने वालों ने भी आज परमेश्वर को पुकारना प्रारम्भ किया है। लाखों वैज्ञानिक, हजारों विज्ञानशालाएँ जिनकी आज्ञानुसार सफल प्रयोगों में तत्पर हैं, उन लोगों ने भी अस्त्र-शस्त्र संगठन-बल, बाहु-बल, बौद्ध-बल से सम्पन्न होकर भी, आज परमेश्वर को पुकारने में अपना और अपने राष्ट्र का कल्याण समझना आरम्भ कर दिया है। ऐसी स्थिति में भारत को आज धर्म और माला-जय की आवश्यकता न प्रतीत हो, यह आश्चर्य है। जो कहा जाता है कि यहाँ आज भी धर्म के नाम पर सब देशों से अधिक धन और समय का व्यय होता है, सो अवश्य ठीक है। परन्तु सदुपयोग, दुरुपयोग नाम की भी तो कोई वस्तु है। यह स्पष्ट ही है कि अधिकतर धन और समय का धर्म के नाम पर अपव्यय होता है। अपरिगणित धर्मादे की सम्पत्तियों का दुरुपयोग हो ही रहा है। यदि धर्म के यथार्थ स्वरूप का प्राकट्य या सच्छास्त्रों के प्रचार से अविद्यानिरसन में उनका उपयोग हो तो सचमुच लाभ हो सकता है। इसी तरह छप्पन लाख साधुओं की गणना की भी बात है। तात्पर्य यह है कि शास्त्र के अनुसार शुद्ध भावना से ही किया गया जप, तप, धर्मानुष्ठान लाभदायक होता है। अन्यथा देखते ही हैं कि धुन्धु ने बहुत काल तक अनन्त तप किया था, परन्तु भावना वेदादि शास्त्रों और धर्म के विरोध की थी, इसीलिये उस तप का भी अन्तिम पर्यवसान उत्तम नहीं हुआ। सदुपयोग से एक पैसे का भी दान लाभदायक होता है, दुरुपयोग से हानिकारक होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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