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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
“नहिं कोउ अस जन्मेउ जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।” बस, उसी समय रावण, औरंगजेब जैसी प्रवृत्ति होने लगती है। परमेश्वरीय दण्ड उन्हें मिलता है, परन्तु न्यायकारी को परमेश्वर काल की प्रतीक्षा करके ही उन्हें शुभ कर्मों का फल भोग लेने पर ही अशुभ कर्मों का फल प्रदान करते हैं। श्रीहनुमान ने रावण के विचित्र वैभव को देखकर यही निश्चय किया कि ‘अहो! यदि इसमें अधर्म बलवान न होता तो यह शक्र सहित समस्त लोकपालों का स्वामी ही होने योग्य था।’
लोकपाल भयभीत होकर इसके भ्रुकुटी का ही विलोकन करते रहते हैं। “कर जोरे सुर दिसिप बिनीता। भ्रुकुटि बिलोकहिं परम सभीता।।” हनुमान जी ने समझाया कि रावण! तुमने बहुत कुछ सत्कर्म किया है, उसका फल तुम्हें प्राप्त है-
परन्तु अब अधर्म के फलभोग का समय आ रहा है, सावधान हो जाओ। तात्पर्य यही कि अत्याचारी को भी अपने सत्कर्मों का फलभोग मिलता है, अवसर पाकर सत्कर्मों का भी फल मिलता है। ऐसे ही धर्मात्मा को भी पिछले प्रारब्ध तीव्रतम अधर्म का भी फल भोगना पड़ता है। जो कहा जाता है कि भारत ‘धर्म-धर्म’ चिल्लाता है, तो भी उसका पतन ही पतन ही दृष्टिगोचर होता है। दूसरे देश धर्म का नाम भी नहीं लेते, फिर भी हम पर शासन कर रहे हैं। परन्तु यह भी अविचारित-रमणीय बात है। ‘दूर के ढोल सुहावने लगते हैं।’ यह हम कह चुके हैं कि जहाँ भी कहीं उन्नति देखो वहाँ उसके मूलभूत धर्म की कल्पना कर लेनी चाहिये। विषवृक्ष में अमृतफल कदापि नहीं लगता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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