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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
कहीं-कहीं लोगों को बहुत सन्देह हो जाता है, जब वे देखते हैं कि अत्याचारी प्रसन्न है और सदाचारी धर्मात्मा दुःख पा रहे हैं। परन्तु यह निश्चय रखना चाहिये कि जैसे विषवृक्ष में विष का ही फल लगता है, अमृत फल नहीं; वैसे ही पाप से दुःख ही होगा, सुख नहीं; पुण्य से सुख ही होगा, दुःख नहीं। हाँ, विलम्ब हो सकता है। कोई बीज अपना फल देने में कुछ काल ले सकता है, परन्तु यह कभी नहीं हो सकता कि विषवृक्ष में अमृत का फल लगे। कोई प्राणी चैत्र में भले ही मटर या चना बोता हो, परन्तु यदि उसने कार्तिक में गेहूँ बोया है, तो उसे चैत्र में काटने को तो गेहूँ ही मिलेगा। इसी तरह कोई प्राणी भले ही अधर्म-अत्याचार कर रहा हो, मूर्ति तोड़कर, शास्त्र-धर्म तोड़कर ताप करता हो, परन्तु इस समय फल तो वही भोगने को मिलेगा जैसा कर्म पहले कर चुका है। हाँ, उग्र पापों और पुण्यों का फल जल्दी मिलता है, परन्तु वह भी कुछ तो अवसर की प्रतीक्षा करता ही है।
इसीलिये नल, राम, युधिष्ठिरादि धर्मनिष्ट होते हुए भी दुःखी थे। रावण, दुर्योधनादि विपरीतगामी होने पर भी सुखी थे। परन्तु अन्त में उन्हें अपने पापों का भी फल भोगना पड़ा ही। राम, युधिष्ठिरादि सुखी हुए, रावणादि का सर्वनाश हो गया। “सौ लख पूत सवा लख नाती। तेहि रावन के दिया न बाती।।” ऐसे ही औरंगजेब आदि की भी पूर्वजन्म की तपस्या थी, उसी के प्रभाव से उन लोगों का उतना तेज और वैभव था। जब तक उसकी समाप्ति नहीं हुई, तब तक उनका पराभव असम्भव था। सामान्यतः यही होता है कि तपस्या से राज्य और राज्य से नरक होता है। जब प्राणी पीड़ित, पददलित, उच्छोषित, विताडित होता है, तब उसे न्याय, धर्म और ईश्वर सूझता है। ऐसा होते ही कुछ उन्नति और प्रभुता होती है; बस, उसी समय अपने आपको सम्हालना बुद्धिमानी है। अधिकार की कुर्सी मिलते ही न्याय, धर्म और ईश्वर को भूल जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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