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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
विपरीत भावना से, प्रचण्ड वायु से आग अधिक उत्तेजित भी हो सकती ह, परन्तु जिसे पूर्ण विश्वास है वह ‘राम-राम’ के सहारे भोजन-पानादि की भी परवाह नहीं करता। जिसके मन में घर में आग लगने पर भी नाम का भाव दिखाई देता है, उसकी आग भगवत्कृपा से अवश्य बुझ जायेगी। परन्तु वैसी धारणा और योग्यता न होने पर भी जो भोजनपान-व्यवहारादि कार्यों में तत्पर, रहते हुए भी, समाज तथा राष्ट्र के हित में नहीं प्रवृत्त होते हैं; किसी भी धार्मिक, सामाजिक कार्यों के अवसर पर केवल राम-नाम का सहारा पकड़ते हैं, वे तो योग्यता और अवसर को न सोचकर एक सत्सिद्धान्त को केवल कलंकित ही करने का प्रयत्न करते हैं। वैराग्य के स्थान में राग, राग के स्थान में वैराग्य प्रवृत्ति के स्थान में निवृत्ति और निवृत्ति के स्थान में प्रवृत्ति-अनुचित है, हानिकर है।
परन्तु यदि दूसरा उपाय ही दृष्टिगोचर न हो, तब तो सिवा भगवान के सहारा के और चारा ही क्या है? इसीलिये तो जहाँ एक परमविश्वासी उच्चकोटि के भगवद्भक्त के लिये भगवद्भजन ही सर्वाभीष्टपूरक है, वैसे ही एक अत्यन्त आर्त्त या अर्थार्थी एवंच सर्वसाधनविहीन का एक मात्र भगवान ही सहारा है। तत्त्वनिष्ट कृतकृत्य ज्ञानी भक्त स्वभाव से ही भगवान को भजते हैं। जिज्ञासु ज्ञान-प्राप्त्यर्थ भगवान को भजते हैं। अर्थार्थी, आर्त्त अपनी अर्थ-प्राप्ति और आर्तिनिवृत्ति के लिये परमेश्वर को भजते हैं। किसी भी कामना वाला व्यक्ति अपनी अभीष्ट पूर्ति के लिये तत्तत् उपायों का अनुष्ठान करता हुआ भी, उनकी सफलता के लिये परमेश्वर की आराधना करता है। जिज्ञासु भगवच्चरण-पंकज-समर्पण-बुद्ध्या धर्मों का अनुष्ठान करता है। वेदान्तों का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करता है। आर्त्त, अर्थार्थी शास्त्र के अनुसार नैतिक, आर्थिक उपायों का प्रयोग करता है, फिर भी ‘मामनुस्मर युद्ध्य च’ के अनुसार अपने अस्त्र-शस्त्र बल का गर्व, बौद्ध और बाहुबल के घमण्ड को छोड़कर, ईश्वर का आश्रयण करना पड़ता है। क्योंकि ईश्वर अनुकूल होने पर ही सम्पूर्ण लौकिक उपायों की सफलता होती है। भगवदुपेक्षित प्राणी के लिये सम्पूर्ण उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। इसीलिये माता-पिता के द्वारा अनेक उपचारों से लालन-पालन करते रहने पर भी, बालकों की मृत्यु देखी जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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