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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
भगवान तो स्वतः नित्यशुद्धबुद्ध मुक्तस्वभाव ही हैं। इसी भाँति तत्त्वदर्शी सर्वस्वरूप प्रत्यक्चैतन्याभिन्न प्रज्ञानानन्दघन भगवान में आत्मभाव से प्रतिष्ठित हुए भी व्यावहारिक भेद समाश्रयण कर अपरिगणित कन्दर्पदर्पदलन पटीयान सौन्दर्य-सुधासिन्धु के मुनिमनमोहक माधुर्य का भी समास्वादन करते हैं। इस तरह से यद्यपि अकुटिल भाव से श्रुतिस्मृति तदनुकूल तर्कानुमोदितमार्ग द्वारा समस्त विरुद्ध धर्म एवं सिद्धान्तों का साक्षात या परम्परया सामंजस्य वेदों के परमतात्पर्य विषयमृत भगवान में निर्विवाद सिद्ध है तथापि लीला-विशेष अभिनय के लिये वस्तुतः अनन्यपूर्तिकाओं में भी अन्यपूर्विकात्व के लोक-दृष्टि-सिद्ध अरोपवत अभिप्राय-भेद से सकल विवादास्पदत्व भी लीलामय के स्वरूपाऽननुरूप नहीं है। वेदान्त के इस अद्वैत सिद्धान्त से नास्तिकों तक का विरोध नहीं पड़ता। जो भगवान भक्तों के सर्वस्व एवं ज्ञानियों के एकमात्र परम तत्त्व हैं, वही नास्तिकों से नास्तिकों के भी सब कुछ हैं। यह बात असम्भव सी प्रतीत होती है परन्तु विवेचन करने से अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है। चाहे कैसा भी नास्तिक क्यों न हो, वह अपने अभाव से घबराता है, वह यही चाहता है कि मैं सदा बना रहूँ। साधारण से साधारण प्राणी भी आत्मरक्षा के लिये व्यग्र रहता है। कोई भी अपने अस्तित्व को मिटाना नहीं चाहता। इस तरह नास्तिक भी अपने अस्तित्व का पूर्णानुरागी है। अपने आप कौन है, जिसका अस्तित्व वह चाहत है, इसे वह न जानता हो, यह बात दूसरी है। यदि सौभाग्यवश कभी इस ओर भी उसकी दृष्टि फिर गयी, तब तो वह समझ लेगा कि विनश्वर देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार तथा ये सभी दृश्य मेरे हैं और मैं उनसे पृथक तथा इनका द्रष्टा हूँ और में उसी निर्विकार, दृक्-स्वरूप स्वात्मा का ही सद अस्तित्व चाहता हूँ। विवेचन करने से यह भी विदित होता है कि स्वप्रकाश दृक् का अस्तित्व ‘तत्’ स्वरूप ही है। इसीलिये आत्मा स्वप्रकाश कहा जाता है। जगत की अनेकानेक वस्तुओं में चाहे जितना भी सन्देह हो, परन्तु 'मैं हूँ या नहीं' ऐसा आत्मविषयक संदेह किसी को भी नहीं होता। जगत परमेश्वर, धर्म, कर्म सभी का अभाव सिद्ध करने वाले शून्यवादी को भी अनिच्छया स्वात्मा का अस्तित्व मानना ही पड़ता है। कारण, जो सबके अभाव का सिद्ध करने वाला है, यदि वह रह गया तब तो स्वातिरिक्त ही सबका अभाव सिद्ध होगा, अपना अथाव नहीं सिद्ध हो सकता। सर्वनिराकर्ता, सर्वनिषेध की अवधि एवं साक्षीभूत के अस्वीकार करने पर शून्य भी अप्रामाणिक होगा। अतः वही अत्यन्त अबाधित, सर्वबाध का अधिष्ठान एवं साक्षीभूत अस्तित्व या सत्ता ही भगवान का ‘सत्’ रूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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